शिखा कौशिक/
पिछले नवम्बर, वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट प्रकाशित किया और बताया कि भारत 87वें रैंक से फिसलकर 108वें रैंक पर पहुँच गया है. इस रिपोर्ट के माध्यम से भी वही सत्य उजागर हो रहा है जो पिछले तीस सालों से जगजाहिर है. सच ये कि देश की जीडीपी तो बढ़ रही है लेकिन देश के कार्यबल में महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.
इसका खुलासा राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय के एक सर्वे ने भी किया. इस सर्वे से पता चलता है कि वर्ष 1999-2000 के बीच करीब 35 प्रतिशत ग्रामीण महिलायें कार्य करती थीं जो 2011-12 में घटकर महज़ 25 प्रतिशत रह गया. यह उन महिलाओं का प्रतिशत है जो पैसा कमाने के लिए कार्य कर रहीं थीं. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि शहरी क्षेत्र में स्थिति और बुरी है.
लेकिन भारत के नीति-निर्माता इससे परेशान नहीं होते दिखते. बहुत पहले से इस देश में एक सर्वेक्षण होना तय है कि जिसके तहत यह पता चलना है कि महिलाओं पर वैसे कामों का बोझ कितना है जिसके बदले में उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता.
वर्ष 2013 में राज्य मंत्री श्रीकांत कुमार जेना ने संसद में बताया था कि सांख्यिकी मंत्रालय एक ऐसे सर्वेक्षण की तैयारी कर रहा है जिससे पता चल सके कि लोग किस तरह के काम में समय खर्च कर रहे हैं. इसको अंग्रेजी में टाइम-यूज-सर्वे कहते हैं. पांच साल तो गुजर गए लेकिन अभी तक इसकी सुगबुगाहट नहीं है. इस सर्वेक्षण के लिए जिम्मेदार विभाग के एक अधिकारी कहते हैं कि आने वाले एक दो साल में इसके शुरुआत होने की सम्भावना है.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में पहला टाइम यूज सर्वे एक पायलट अध्ययन के तौर पर छः राज्यों में हुआ था जिसमें हरियाणा, मध्य प्रदेश, गुजरात, ओडिशा, तमिल नाडू और मेघालय शामिल थे. इस सर्वेक्षण से पता चला था कि कुल 168 घंटे के सप्ताह में बिना पैसे के काम पर महिलाओं ने 34.63 घंटे खर्च किये थे जबकि पुरुषों ने महज 3.65 घंटे. अब महिलाओं पर बिना पैसे वाले काम का बोझ बढ़ गया है. हाल ही में आये एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के आंकड़े के अनुसार एक महिला रोज 5.8 घंटे ऐसे कामों पर खर्च करती है जबकि पुरुष महज 51.8 मिनट. इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब पहला सर्वेक्षण हुआ था तब से अब तक महिलाओं पर ऐसे कामों का बोझ बढ़ गया है और महिलायें रोज ऐसे कामों पर करीब दो घंटे अधिक दे रही हैं.
पारंपरिक रूप से महिलाओं पर ऐसे कामों का बोझ अधिक रहा है जिसमें परिश्रम तो बहुत होता है पर उसका तत्कालीन कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता. इसी वजह से महिलाओं पर दोतरफा मार पड़ती है. एक तो उन्हें परिश्रम भी अधिक करना होता है दूसरे चूंकि उनके काम का घर गृहस्थी में कोई आर्थिक सहयोग नहीं हो पाता इसलिए उन्हें हमेशा दोयम दर्जे के सदस्य के तौर पर रहना पड़ता है.
इसको समझने की शुरुआत सबसे पहले 1971 में शुरू हुई जब उस साल आये जनगणना से पता चला कि राजस्थान के पुरुषों का योगदान ‘काम’ में 92 प्रतिशत है और महिलाओं का महज 15 प्रतिशत. लोगों को खटका लगा. ऐसा कैसे हो सकता है, जबकि आस पड़ोस में देखने पर पता चल सकता है कि पारंपरिक परिवारों में महिलायें दिन-दिन भर काम करती रह जाती हैं. इस पहेली को सुलझाने के लिए इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज ट्रस्ट और राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन ने राजस्थान और पश्चिम बंगाल के छः गाँव में एक अध्ययन किया. इस अध्ययन में जो निकल कर आया वो एकदम अलग था.
जब इन्होंने ऐसे कार्य भी अध्ययन में शामिल किये जैसे जानवरों का चरण, कटाई, भोजन पकाना, घास काटना इत्यादि तो पता चला कि पुरुषों का काम में योगदान 93 प्रतिशत है जबकि महिलाओं का 98 प्रतिशत.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार के जनगणना वाले सर्वेक्षण में बहुत सारे रोजमर्रा के कार्य को कार्य ही नहीं माना गया जबकि उसमें लोगों को भरपूर समय और उर्जा खर्च करना पड़ता है.
अभी क्या समस्या है?
समस्या यह है कि अभी भी महिलाओं पर ऐसे कार्य का बोझ अधिक है जिनमें उर्जा और समय तो बहुत लगता है लेकिन उसका पारिश्रमिक जैसा कुछ नहीं मिलता क्योंकि वो घरेलु कार्य होते हैं. इस तरह महिलाओं के घर चलाने में सही योगदान का कोई आंकलन नहीं हो पाता, जबकि इसके उलट पुरुष काम करने के बदले घर में कुछ पैसा हर महीने लाता है.
इस वजह से महिलायें हमेशा दोयम दर्जे के नागरिक की भूमिका में रह जाती हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं का अधिकृत कार्यक्षेत्र से अलग होते जाने का मतलब यह है कि उनपर घरेलु कार्यों का बोझ बढ़ता जा रहा है. और सरकार की नीतियां ऐसी हैं कि महिलायें हमेशा से पिछड़ जाती है. जैसे मान लीजिये कि घर में अगर एक बुजुर्ग बीमार हो जाता है तो उसका अधिकतर भार घर की महिला पर आता है जिसका कोइ आर्थिक मूल्यांकन नहीं होता.
सरकार को चाहिए कि जल्दी से जल्दी वह अवैतनिक कार्यों का सही आंकलन करने लिए एक सर्वेक्षण करवाए. यह महिलाओं को न सिर्फ अपने परिवार बल्कि समाज में अपनी स्थिति समझने में मदद करेगी. और इसका असल मूल्यांकन तभी संभव है जब यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय स्तर पर हो .