विपिन चौधरी कविताओं के माध्यम से वैचारिकी की दुनिया में हस्तक्षेप करती रहीं हैं. इनकी कविताएँ किसी विचार को बिल्कुल नए ढंग से देखने की कवायद भी होती है. कविताओं के साथ समाज को देखने के लिए इनके पास और भी बहुतेरे लेंस हैं जिसकी मदद से ये समाज की तमाम अच्छी-बुरी बारीकियों को उजागर करती हैं. इस लेख में इन्होंने हरियाणा के स्त्री जीवन को देखने के लिए लोकगीतों को माध्यम बनाया है. पढ़िए…
विपिन चौधरी/
“अरै आज हामनै बांदरी तो गायी कौनी”
हर रोज़ पार्क में जमने वाली महफ़िल विराम की ओर थी कि एक स्त्री को अचानक याद आया. कुछ स्त्रियां अपने सिर का पल्ला ठीक करने में लगी थी, तो कुछ अपने घरों से लाये हाथ-पंखे तो कुछ अपनी लकड़ी के पीढ़े और कुछ हाथ के बीजने को संभाल रही थी कि तभी बांदरी गीत गाने को भूलने की बात सुन कर फिर से गाने बैठ गई.
अक्सर लोकगीतों के पीछे कई दिलचस्प लोककथाएं भी होती हैं, बांदरी के इस गीत के साथ भी एक लोककथा है.
मौसम और त्योहार के अनुसार गीत गाने के बाद, अपनी गीतों की महफ़िल को अगले दिन के लिए स्थगित करने की प्रथा पर कायम ये स्त्रियां अपने-अपने घरों की ओर लौट जाती हैं.
मेरे घर के सामने स्थित पार्क में लगभग बीस वर्षों से नियमपूर्वक शाम के एक निश्चित समय पर महिलाओं की मण्डली बैठती है. पड़ोस की महिलाओं के अलावा कुछ स्त्रियाँ दूर-दराज़ की कॉलोनियों से भी आती हैं. इनकी बैठक में बातचीत, निंदा-चुगली की जगह गीतों की स्वर-लहरियां अधिक सुनाई देती हैं. हवा के रुख के साथ अक्सर गीतों की स्वर-लहरियां मेरे घर के वायुमंडल का हिस्सा बन जाती हैं.
किसी समाज विशेष के स्त्री-जीवन की गहराईयों तक पहुँचने के लिए उनके द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों का सहारा लिया जा सकता है. स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले हरियाणवी लोकगीतों के आर्टिक्यूलेशन में उतर कर महिलाओं के बीच घर बना चुकी धारणायें, उन स्त्रियों का सामाजिक ज्ञान व उनकी कल्पना के दर्शन तो होते ही हैं साथ ही इन गीतों में निरक्षर स्त्रियों की मानसिक और भावनात्मक ऊर्जा के निवेश का पता चलता है.
अपने शहर में ऐसे कई मंडलियों की गवाह रही हूँ मैं. शाम के वक़्त एकत्रित होने वाली अधिकतर स्त्रियों की युवावस्था गाँव में गुजरी है. अब अपनी वृद्धावस्था के समय शहर में नौकरी कर रहे अपने बच्चों के साथ गुज़र-बसर कर रही हैं. अब उनकी चिंता का केंद्र बच्चों का परिवार और अपना परलोक ही है, ऐसे में वे प्रभु को सिमरते हुए गा उठती हैं.
‘मनै ना काम दुनियां तै
मनै मेरा राम प्यारा सै
जद वो आया चढ़ा री लंका म्ह
रावण मारा रै लंका म्ह‘
लोकगीत, वाचिक परंपरा का निर्वाहन करते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं और लोकगीत व लोक-संगीत की शैलियां सामाजिक प्रथाओं की लम्बीं-चौड़ी विस्तृत श्रृंखलाओं से जुडी होती हैं, मसलन हरियाणवी समाज में पितृसत्ता की काफी गहरे तक जमी हुई जड़ों का भेद लोकगीत भी खोल देते हैं. लड़के के जन्म पर उत्सव और लड़की के जन्म पर मातमी माहौल की बानगी यहाँ के लोकगीतों में स्पष्ट है.
‘जच्चा नै बच्चा जाय स दिन खुसी का आया है
जच्चा तेरी सासू आवैगी
वा चरुवा चढाई नेग मांगेगी‘
और बेटी के जन्म को भार के रूप में प्रदर्शित करता यह एक लोकगीत…
‘जिस दिन लाडो तेरा जन्म होया सै इ
सै वा बंजर की रात
पहरे आलै सो गए
लग गए चन्दन किवाड़‘
हरियाणवी संस्कृति में हमेशा से ही खेतीबाड़ी के अलावा, सेना में शामिल होकर देश की रक्षा करना प्रमुख और सम्मानजनक व्यवसाय रहा है. और चूंकि ज्यादातर या कई बार किसी अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण स्त्रियां अपने पति के साथ नहीं जा पाती और उन्हें घर-परिवार, खेती-पशुओं को सँभालते हुए दिन-प्रतिदिन के कामों के लिए अकेले ही संघर्षरत होना पड़ता है. लोकगीतों में उनके संघर्षशील जीवन का प्रतिबिंब भी है और विरह-वेदना की स्याह परछाई भी.
‘पिया भरती मैं हो ले ना पट्टजा छत्तरापन का तोल
जरसन मैं जाके लड़िए अपने मां बापां का नां करिये‘
हरियाणवी लोकगीतों के सुर-ताल-लय
निश्चित तौर पर भिन्न क्षेत्रों के गीतों के शब्दों और लय में विभिन्नता मिलती है. मगर हरियाणवी गीतों के बोल बेहद सरल और लय साधारण होते हैं. हरियाणा के गावों के नाम जयजयवंती, कल्याण, सारंगपुर, वृन्दावन रागों पर हैं जिससे पता चलता है कि गीत-संगीत इस प्रदेश के संस्कारों में हैं . त्यौहारों, मौसमों और सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार लोकगीत गाये जाते हैं. सावन में गाए जाने वाले हरियाणवी गीत जैसे होलार, बांदरा, बांदरी और संस्कार जैसे गीत, मध्यम सप्तक में मध्यम आवाज़ में गाए जाते हैं दूसरी ओर फागुन के गीतों में अधिक लय होने के कारण उन्हें ढाप, ढोल और कंजरी के साथ गाया जाता है जिनमें कृष्ण और राधा से सम्बंधित गीत गाये जाते हैं. गीतों से साथ नृत्य की बात न हो ऐसा संभव नहीं.
खोड़िया, चौपिया, लूर, बीन, घूमर, धमाल फाग जैसे नृत्य हरियाणवी जीवन में रंग भरते हैं. तेज़ लय वाले गीतों को उपेक्षाकृत कम उम्र वाली लड़कियां फागुन, कातक, सामण, जकड़ी, जच्चा, बांदे-बांदी, साथेने में गाती हैं, वहीँ दूसरी ओर बड़ी उम्र की महिलायें मंगलगीत, भजन, भाट, सगाई, बान, कन्यापूजन, सांझी गाती हैं. बिना किसी लिखित इतिहास के सहारे चल रहे इन लोकगीतों ने काफी लंबा सफ़र तय किया है. हरियाणवी में कई लहजे हैं साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में बोलियों की भिन्नता है.
आज गाँवों में बसने वाली युवा पीढ़ी डी.जे. में अधिक रूचि ले रही ती है वहीँ पुराने रिवाजों के अनुसार इन लोकगीतों बिना कोई मंगल-कार्य पूरे नहीं होते क्योंकि शादी जैसे पारिवारिक आयोजनों में हरियाणवी गीतों की आवश्यकता को नाकारा नहीं जा सकता.
यहाँ एक प्रसंग आया था कुछ वर्ष पहले मेरी मौसरी बहन की शादी में जब गाँव से और पड़ोस के आए रिश्तेदार और दोस्तों द्वारा हरियाणवी गीत जैसे ही बंद हुए दूसरी ओर लेडिज़ संगीत पर फ़िल्मी गीतों पर युवा लड़कियां थिरकने लगी. तब लोकगीत गाने वाली महिलाएँ सर्दी में अपने-अपने शालों और कंबलों में सिमटी इस तेज़ धुनों पर थिरकती लड़कियों को देखने लगी. लड़कियों को देखते हुए मैं सोच रही थी ये स्त्रियाँ इस नई ब्यार को कैसे देखती होंगी.
हरियाणा प्रदेश में महर्षि दयानद का काफी प्रभाव रहा हैं. कई गीत उनकों ही सम्बोधित करते हुए रचे गये जो आज भी गाये जाते हैं. इस प्रभाव का असर ऐसा था कि कई गीतों के बोलों में कुंवारी युवतियां अपने अभिभावकों से किसी आर्य समाजी परिवार में ब्याहने की जिद करती हैं.
सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिए आर्य समाज का अवलंबन देते हुए उस समय की स्त्रियों के आर्य समाजी गीत रचे भावुकता लिए हुए थे. इसके अलावा स्त्री-शिक्षा को लेकर भी खूब गीतों रचे गए. हरियाणा के पुरुषों में शराब पीने का काफी ख़राब प्रवृति है. स्त्रियों ने इस बुराई को लेकर भी गीत रचे यह उनके भीतर की पीड़ा का पता भी देते हैं क्योंकि परिवार के किसी पुरुष के शराब पीने से सबसे अधिक स्त्रियाँ ही प्रभावित होती हैं. वे तब गा उठती हैं,
‘दारु पीणी छोड़ पिया
तनै नाट्टै सै तेरी ब्याही‘
गुलाम भारत के समय देशभक्ति की बयार में भगत सिंह , सुखदेव आदि क्रांतिकारियों पर भी खूब हरियाणवी गीत बुने गए जिन्हें आज भी बुजुर्ग स्त्रियां गाती हैं.
‘भारत के भाग्य तू, सोता क्यूं जाग तूं
भारत की एक बहादुर जेट्टी लक्ष्मीबाई झाँसी
उलट-पलट किया कतम सांडरस
वीर भगत चढ़े फांसी‘
इसी तरह गाँधी जी के निधन पर भी कई हरियाणवी गीत उनमे से एक गीत
‘चरखा काचा कुणबा छोड़ के बाब्बू सुरग लोक में सोगे।
भारत के सब नर नारी अब बिना बाप के होगे॥‘
हरियाणवी स्त्री का पर्सनल स्पेस यानी जकड़ी गीत
निरक्षर महिलाओं के पास बहुत सारा कच्चा माल होता है, जिसका इस्तेमाल वे अपनी रुचि के अनुसार, अपने निजी स्पेस के निर्माण में करती हैं. लोकगीतों में उनके दुख-सुख, अरमानों से लेकर समूची दुनिया का जिक्र है.
मुझे मेरी नानी द्वारा भोर के समय चक्की में गेहूं पीसते हुए गुनगुनाना, आज भी कानों में गूंजता हैं. बाद में नानी की हमउम्र सहेलियों द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों में ईश-वंदन का स्थान घिरता गया.
‘वंशी वाले ने घेर लयी, अकेली पनियां गई
सिर पै घड़ा घड़े पर गगरी
गगरी मेरी फोड़ दयी
अकेली पनिया गई
हार मोरा भीगा श्रंगार मोरा भीगा
चुनरी मोरी भीज गई‘
हरियाणवी महिलाएँ जहाँ दिन भर घूँघट ओढे घर में काम-काज में लगी रहती हैं. वही अपने एकांत में जब वे मुखर हो उठती हैं तब उनकी सक्रियता देखने लायक होती है. स्त्री के इस एकांत के आनंद को घर के पुरुषों को शायद ही भनक लगती हो. जब वह घर के एक कोने में नहाते हुए या श्रृंगार करते हुए गुनगुनाती है. बच्चों को लोरी सुनाते समय, प्रेम के क्षणों में, पशुओं के लिए चाट रांधते समय, दही बिलौते समय, यहाँ तक कि किसी परिजन की मृत्यु की खबर सुन शोक के गीत गाते हुए वह सांत्वना के लिए उनके घर जाती है.
हरियाणा में बांगड़ू, अहीरवाटी बोलियां बोली जाती हैं. जब कोई लड़की एक बोली वाले प्रदेश से ब्याह कर दूसरे प्रदेश में जाती है तो अपने यहाँ की बोली के शब्दों को अपने ससुराल में प्रचलित कर उन्हें अपने हिसाब से प्रस्तुत करती हैं. इस तरह इन लोकगीतों की शब्द-संपदा में सदा कुछ मेल होता रहता है और लोकगीतों का फलक समृद्ध होता जाता है.
इसी तरह ग्रामीण महिलाएँ विवाह के अवसर पर लड़की को मेंहदी लगाने से लेकर उसे विदा करने तक के कई रस्मों में सम्मिलित होकर गीत गाती हैं और लड़के की शादी में जब सभी लोग बारात में चले जाते हैं तब वह समय स्त्रियों का अपना समय होता है तब वे निसंकोच होकर स्त्री-पुरुष संबंधो और द्विअर्थी बोलों को अपने गीतों में शामिल करती हैं.
‘हरियाणा में आयी रै बिजली
नीली लाल बल्ब लटकै
हाय-हाय बहू तेरी बोली मह
गंडे जिसा रस टपकै’
मुझे याद है अपने मामा की शादी के समय मैं लगभग नौंवीं कक्षा में थी, घर में सभी पुरुष बारात में चले गए और घर और नाते-रिश्तेदारों की स्त्रियाँ गीत गाते हुए खोड़िया नृत्य करने लगी. मैं नृत्य करती उन स्त्रियों के हाव-भाव देखकर सकपका गई तब मेरी नानी ने उस नृत्य करने वाली स्त्री के कान में कुछ कहा तो वह कोई दूसरा नृत्य करने लगी और मैं नींद आने की बात कह कर उस गीत-संगीत की महफ़िल से उठ गई. बाद में जब बड़ी हुई तब खोड़िया गीत-नृत्य का राज खुला तब जाना कि पितृसत्ता की कठोर ज़मीन पर ये स्त्रियां अपनी पसंद के अंकुर बो देती हैं और गाहे-बगाहे उन पर पानी छिड़कती रहती हैं. इसी तरह सदी-दर-सदी उनके मन की बेल बढती जाती है और इन लोकगीतों के बल पर ही अपने पांवों पर खड़े होने का साहस जुटा लेती हैं ये निरक्षर स्त्रियाँ.