सौतुक डेस्क/
आज से ठीक 153 साल पहले आज ही के दिन एक महिला का जन्म हुआ था जिसने भारतीय समाज में चल रहे पितृसत्तात्मक रुढियों को न केवल चुनौती दी बल्कि एक नया कानून भी बनवा दिया.
वो महिला थी रख्माबाई राउत जो आगे चलकर (गुलाम) भारत की पहली महिला डॉक्टर भी बनी.
वर्ष 1864 में इस जुझारू महिला का जन्म मुम्बई के जनार्दन पांडुरंग के घर हुआ था. ये जब आठ साल की हुईं तो इनके सर से इनके पिता का साया उठ गया. इनकी माँ का नाम जयंती बाई था. ये लोग बढ़ई समाज से आते थे.
उस समय समाज में ढेरों कुरीतियाँ व्याप्त थीं जिनमें मे एक था बाल विवाह. इसकी शिकार रख्माबाई भी हुईं और उनकी शादी ग्यारह साल की अवस्था में कर दी गयी. उस अवस्था में भी रख्माबाई ने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी. उन्होंने ससुराल जाने से मना कर दिया. अगले सात साल तक वो अपनी माँ और सौतले पिता के साथ ही रहीं. उनके सौतले पिता का नाम सखाराम अर्जुन था जो खुद एक डॉक्टर थे.
सात साल बाद उनके पति दादाजी भीखाजी ने उस समय के बॉम्बे उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी. उन्होंने न्यायालय से आग्रह किया था कि उनकी पत्नी को उनके पास रहने के लिए भेजा जाए. उस समय रख्माबाई ने अपने पति के पास जाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि एक स्त्री को उसकी मर्जी के खिलाफ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. इनकी लड़ाई में उनके पिता ने भी उनका भरपूर साथ दिया.
यह केस तीन साल चला और न्यायालय को दादाजी भीखाजी की बात सही लगी और फैसला रुकमाबाई के खिलाफ गया. न्यायालय ने रख्माबाई को आदेश दिया कि वह जाकर अपने पति के साथ रहें. आदेश नहीं मानने पर उन्हें छः महीने जेल की सजा होगी. रख्माबाई ने कहा कि अगर इनमें से किसी एक को चुनना है तो वह जेल जाना पसंद करेंगी.
इस ऐतिहासिक घटना को मील का पत्थर बनाने की अगली कड़ी में रानी विक्टोरिया दृश्य में आईं. उन्होंने न्यायालय के आदेश को पलट दिया. इस तरह तत्कालीन सरकार को एक नया कानून एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट, 1891 लेकर आना पड़ा. इसको महिलाओं की सहमति कानून के तौर पर समझा जा सकता है. उस समय भी इस कानून को भारतीय पितृ सत्तात्मक समाज से काफी विरोध झेलना पड़ा था.
कानूनी तौर पर रख्माबाई अपने पति से वर्ष 1888 में अलग होकर इंग्लैंड चली गईं. वहाँ उन्होंने डॉक्टरी की पढाई पूरी की
संयोग देखिये कि आज इतने दिनों बाद भी देश के सर्वोच्च न्यायालय को 18 साल से कम उम्र की पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर अपराध घोषित करना पड़ रहा है. और इस समय की सरकार तो इसके खिलाफ होती हैं. इसे परिवार व्यवस्था के खिलाफ लिया गया कदम मानती है.
डेढ़ सौ साल पहले रख्माबाई का संघर्ष आज उन सारी महिलाओं को एक ताकत देगा जब वह यह सोचेंगी कि उस समय उनकी लड़ाई कितनी कठिन रही होगी.
कानूनी तौर पर रख्माबाई अपने पति से वर्ष 1888 में अलग होकर इंग्लैंड चली गईं. वहाँ उन्होंने डॉक्टरी की पढाई पूरी की. शिक्षा पूरी करने के बाद रख्माबाई 1894 में भारत लौटीं. इसके बाद करीब 35 सालों तक उन्होंने कई शहर जैसे सूरत, राजकोट, बॉम्बे इत्यादि में मरीजों का ईलाज किया. इसके साथ वे कई समाज सेवा के कार्यों में भी लगी रहीं.
इस जुझारू महिला की मृत्यु 91 साल की अवस्था में 25 सितम्बर, 1955 में हुई. आज इस महिला को गूगल भी डूडल बनाकर याद कर रहा है.