मनोज कुमार झा वर्तमान हिंदी कविता की प्रमुख आवाज हैं. इनकी कविता की एक पुस्तिका ‘हम तक विचार’ तथा दो कविता संग्रह ‘तथापि जीवन’ एवं ‘कदाचित अपूर्ण’ प्रकाशित हो चुके हैं. पत्र-पत्रिकाओं में इनके आलेख और समकालीन चिंतकों एवं दार्शनिकों के अनुवादों का नियमित प्रकाशन होता रहा है. आप कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं जिनमे भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार एवं भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का युवा पुरस्कार शामिल है. इनके मोबाईल नम्बर 7654890592 पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

परीछन और करोड़
यह जो घोटालों का शोर है
इसमे गरीब परीछन को सिर्फ करोड़
सुनाई पड़ता है
करोड़ गिरता है मन पर जैसे
जाड़े में एक बच्चे के सिर पर
ठंडा पानी गिरे
और वो कांपे।
मुझे अचरज हुआ जब जाना कि
कभी कभी यह जाड़े
में गुनगुने पानी की तरह भी गिरता है।
परीछन के पास संख्या
सिर्फ पैसे के साथ आती है
या घड़ी के कांटों के घूमने के साथ।
वह करोड़ सोचता है
और दो सौ रुपये की मजदूरी करता है।
संख्या उसे उस तरह नहीं दिखती
जैसे दिखती साहूकार को
दलाल को और नेताओं को।
उसके लिए करोड़ का मतलब
जिन्दगी के भीतर घुस आई निरर्थक संख्या है
जिसको लेकर एक चुराया गया आकर्षण भी है।
हजार उसकी उसकी सर्वाधिक सुखद सम्भावना है
और लाख आवास योजना में आया पैसा
जो एक बार घटित हुआ था।
करोड़ को लेकर जो आकर्षण है
परीछन में
कृपया उसे उसका लालच ना समझें
यह एक गरीब आदमी का असम्भव
की तरफ फेंकी गई नजर है।
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मैं कई तरह की भीड़ में गया
मैं कई तरह की भीड़ में गया
पिता के कंधे पर बैठ कृष्ण पूजा देखने
जहाँ उन्होंने मेरे पेशाब से भींगे कपड़े में मूर्ति को प्रणाम किया
मैंने श्याम की बांसुरी देखी।
रामलीला में मां के साथ भीड़ में लंका दहन देखा।
ओह!मुहर्रम की वो भीड़ और वो नौहे
और जब्दी साहू की जलेबी।
मगर यह कौन सी भीड़ है
जो मुझे मारने आ रही
पूछ रही मुझसे मेरे जन्म की स्थितियां।
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थोड़ा रुको
अभी मत उठो
अभी दुष्ट की पराजय नहीं हुई है
अभी कथा उसके पक्ष में नही आई
जिसके लिए मैं बांच रहा
अभी कीचड़ पर तेजाब की बारिश है
नहीं उग सकता कोई पेड़
चलो मैं कथा को कपच देता हूं
नहीं शायद श्रोताओं के पास समय
और मेरी कथा की भी खत्म हो गई तासीर
थोड़ा रुको, दुष्ट को ढलान पर आने दो
तब उठना
नहीं तो वह दुष्ट मेरा पीछा करता रहेगा।
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पेंचदार आईना
चेहरे को सपाट होने में वक्त लगता है
वही वक्त जो मामूली लोगों के जिगर का लहू पीता है।
चेहरे के समंदर में जो ज्वार उठते हैं
अपने उनका नमक सहेजते हैं
एक दिनअपने थक जाते हैं और नमक को रात सोख लेती है
और क्रूर तटस्थ दृष्टियां समंदर को सुखा डालती हैं।
चेहरे पर पहाडों की छायाएं रहती हैं
जो अच्छे दिनों में चांदनी बन जाती हैं
ये भी बिना कहे गायब हो जाती हैं, एक उदास शाम में।
प्रथम प्रेमिका पृथ्वी को ज्ञात होता है चेहरे पर के चुम्बनों की छाप,यह इन्हें अपने स्पर्श से अदृश्य बना देती हैं, बिना कोई चोट किये।
वक़्त की बर्छियों से चोटिल खूनी सपाट चेहरा जब भी देखो
गौर से देखो
यह अपने को देखना का सबसे सही आइना है, थोड़ा पेंचदार।
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सुभाव
फूल खिलकर प्रसन्न करता है
इसलिए नहीं कि इसमें सुगन्ध है
इसलिए नहीं कि इसमें रंग है
यह सब तो हमारी लालसाएं हैं।
बल्कि इसलिए कि
मिट्टी,हवा, पानी में कुछ है
जो फूल खिला सकता है।
इसलिये कि यह खिलता रहेगा
हम सब को मिट्टी,हवा,पानी में बदल जाने के बाद भी
यह खिलकर हमें जोड़ेगा हमारे बच्चों से।
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खण्ड
मैं तुझसे मिलता भावना के हर खण्ड के साथ
मगर कुछ रह गए धान के खेत में
कुछ पितामह के जलते शव के साथ मसान में ।
मैं तुझसे अपने सारे विचारों के साथ मिलता
लेकिन कुछ बस गए अधपढी किताब में
तो कुछ जुलूस में तनी बंधी हुई मुट्टी में।
मैं तुझसे पूरा का पूरा मिलता
लेकिन बीसवीं सदी के अंत को लांघकर आया हूँ प्रिये।
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