मध्य प्रदेश के शिवपुरी में जन्म. पत्रकारिता और लेखन से जुड़े भवेश दिलशाद साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य सागर’ का प्रकाशन और अब संपादन भी करते हैं. इनकी रचनाएँ नवनीत, साक्षात्कार, अरबाबे-कलम और राग भोपाली आदि पत्रिकाओं के साथ ही दैनिक भास्कर व दैनिक जागरण जैसे अखबारों में प्रकाशित हो चुकीं हैं. इनकी रचनाओं का पुणे और भोपाल आकाशवाणी से प्रसारण भी हो चुका है. भवेश ने गीत अष्टक के चार में से दो खंडों का संपादन-प्रकाशन किया है. इनसे इनके मोबाईल नंबर – 07400838161 पर संपर्क किया जा सकता है.
एक
पानी बहता हुआ है अक़्स बचा लो अपने
जिस सफ़र में भी हो क़िरदार संभालो अपने।
जड़ की मज़बूती ज़मीं में गड़े रहने में है
यूं न मेआर हवाओं में उछालो अपने।
सब की सब हसरतें तक अस्ल में नक़्ल हैं अफ़सोस
अपना दिल चीर के एहसास निकालो अपने।
अब तो हम छीन के लेंगे जो हमारे हक़ हैं
भीख में फेंके हुए आप उठा लो अपने।
या समझने को मुझे और नज़रिया लाओ
या यूं कर लो कि मुझे सांचे में ढालो अपने।
आगे तूफ़ान के ख़तरे हैं मेरे हमसफ़र
डर रहे हो तो यहीं हाथ छुड़ा लो अपने।
वो जो दिलशाद था अक्सर ये कहे था बेशर्म
देखना है तुम्हें मल्बूस हटा लो अपने।
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दो
और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।
एक प्यासा दूसरे से प्यास का मांगेगा हल
आसमानों की तरफ़ हर सर उठा रह जाएगा।
गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
तुमको परछाईं नहीं पत्थर दिखाएगा कुआं
और कुएं के पास फूटा इक घड़ा रह जाएगा।
गर्म आंखें सुलगी सांसें और दहकता हर बदन
रहमतों की बारिशों को खोजता रह जाएगा।
कहके शब-ब-ख़ैर सब सो जाएंगे और रात भर
इक ग़ज़ल के साथ शायर जागता रह जाएगा।
हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जाएगा।
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तीन
बहते हैं जो आंखों से आबशार ज़िंदाबाद
ठंड रख कलेजे विच इंतज़ार ज़िंदाबाद।
ये हसीन चेहरों के इश्तहार ज़िंदाबाद
और जो पीठ पीछे हैं कारोबार ज़िंदाबाद।
नारवा अदाएं हैं बेवफ़ा ये जादू है
उसपे भोले-भालों का ऐतबार ज़िंदाबाद।
या बचेगा अब ईमां या बचेगी बस वहशत
अब लड़ाई ख़ुद से है आर-पार ज़िंदाबाद।
बेतहाशा बेकाबू बेवकूफ़ी बेहद है
इसलिए तो कहता हूं इख़्तियार ज़िंदाबाद।
तुम हो काशी काबा के हम तो सीधे उसके हैं
ला इलाह इल्लल्लाह ओमकार ज़िंदाबाद।
पीछे अपने कहते हैं चक दे ओए दिलशादे
आगे बज़्म कहती है शानदार ज़िंदाबाद।
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चार
बोलो कि लोग ख़ुश हैं यहां सब मज़े में हैं
ये मत कहो कि ज़िल्ले-इलाही नशे में हैं।
करना कुछ और था हमें कर बैठे हम ये क्या
जितने भी लुत्फ़ हैं अब इसी हादसे में हैं।
औरों की बात क्या करें दुनिया की फ़िक्र क्या
हम दोनों यार मुब्तला इक दूसरे में हैं।
जैसे कभी न देखा हो यूं देखते हैं वो
देखो न देखने के सितम देखने में हैं।
थोड़ा सा सब्र कर तुझे हम देंगे फ़ल्सफ़े
फ़िलवक़्त ज़िन्दगी के बड़े तजरुबे में हैं।
महफ़िल करे ग़ज़ल का ज़रा इंतज़ार और
दिलशाद साहिबान अभी मयक़दे में हैं।
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पांच
न करीब आ न तू दूर जा ये जो फ़ासला है ये ठीक है
न गुज़र हदों से न हद बता यही दायरा है ये ठीक है।
न तो आशना न ही अजनबी न कोई बदन है न रूह ही
यही ज़िंदगी का है फ़लसफ़ा ये जो फ़लसफ़ा है ये ठीक है।
ये ज़रूरतों का ही रिश्ता है ये ज़रूरी रिश्ता तो है नहीं
ये ज़रूरतें ही ज़रूरी हैं ये जो वास्ता है ये ठीक है।
मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या
ये तक़ल्लुफ़ात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है।
हम अलग-अलग हुए हैं मगर अभी कंपकंपाती है ये नज़र
अभी अपने बीच है काफ़ी कुछ जो भी रह गया है ये ठीक है।
मेरी फ़ितरतों में ही कुफ़्र है मेरी आदतों में ही उज्र है
बिना सोचे मैं कहूँ किस तरह जो लिखा हुआ है ये ठीक है।
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लाजवाब ग़ज़लें।
दिलशाद साहब की उम्दा ग़ज़लें हैं
बिसलरी की बोतलों का मुँह खुला रह जाएगा…कमाल का शेर है