प्रतिभा के धनी कवि साहित्यकार अम्बर पांडेय के लिखे जा रहे धारावाहिक उपन्यास माँमुनि के चार अंश आप अबतक यहाँ पढ़ चुके हैं. इसी क्रम में आज प्रस्तुत है पाँचवां अंश.
अम्बर पांडेय
“जठराग्नि सहकर कोई जीवित रह जाए, दावानल में फँसकर भी न मरे, समुद्र की ज्वाला से बचकर मछली आ जाए किन्तु प्रवाद का थोड़ा सा ताप भी सती के लिए मरण है। श्रीमान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कहते है मृत स्वामी को गोद में लेकर मरनेवाली स्त्री को सती नहीं कहते। सती का अर्थ है जिसका प्रेम सच्चा हो, केवल इतना। मैं जानती हूँ तुम्हारी दशा, भाभी किन्तु उतना ही अपने बड़दा ठाकुर से भी मेरा परिचय है” प्रसन्नमयी ने थोड़े से दूध के संग भात खाते हुए कहा।
“प्रवाद से भय नहीं होती। उनके स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता होती है। सब कहते है ठाकुर को शिरोरोग हुआ है” शारदा ने प्रसन्नमयी की पत्तल में और भात परोसते कहा।
“भाभी, इतना खानेवाली समझ रखा था तुमने मुझे” प्रसन्नमयी ने हथेली पत्तल के ऊपर करते हुए कहा।
“क्या कामारपुकुर के सब जन चिड़िया जितना ही खाते है, प्रसन्नदी?” शारदा हँसने लगी। अचानक ठाकुर की चिन्ता के कारण दोनों के मन में जो विषाद था वह तिरोहित हो गया।
श्यामसुन्दरीदेवी भी दोनों के निकट आकर बैठ गई। अपनी बेटी शारदा के स्वामी की चिन्ता की रेखाएँ उनके ललाट पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बेटी की वय ही कितनी है और उसपर स्वामी का पागल हो जाना। प्रतिदिन कोई व्यक्ति दक्षिणेश्वर से आकर जवाईबाबू की दारुण दशा का कोई समाचार सुना जाता। जवाईबाबू शारदा को संग भी न ले जाते थे। ऐसे पुरुष की कोई कल्पना भी कर सकता है जिसे अपनी स्त्री के यौवन को भोगने की इच्छा न हो। फलों से झुकती आम्रलता जिसकी हो वह नेत्र उठाकर भी न देखे, यह तो श्यामसुन्दरीदेवी के लिए अश्रुतपूर्व था किन्तु वह शारदा से कुछ कहती न थी। चिन्ता शब्दहीन होकर उनके शरीर से प्रकट होने लगी थी।
“अब निकलूँगी, शारदा। अधिक विलम्ब हुआ तो मेरे विषय में भी लोकोपवाद फैलते देर न लगेगी” प्रसन्नमयी हाथ धोकर जाने को खड़ी हो गई।
“आज रात्रि के लिए रुक जाओ न प्रसन्नदी। दो स्त्रियाँ अपना दुःखसुख तो कह ले” शारदा ने प्रसन्नमयी का हाथ पकड़ लिया।
“सुख की कथा कहना चाहिए, भाभी। दुख कहने से दुख दूना होता है और विधवा क्या सुख की कथा कह सकती है, भला!
“सुख की कथा कहना चाहिए, भाभी। दुख कहने से दुख दूना होता है और विधवा क्या सुख की कथा कह सकती है, भला!” प्रसन्नमयी ने कहा और शारदा के हाथ में हाथ देकर बैठ गई।
श्यामसुन्दरीदेवी भी अनुनय करने लगी, “आज मत जा, प्रसन्नबिटिया। कल कलेऊ करके भिनसारे ही निकल जाना।” श्यामसुन्दरीदेवी प्रसन्नमयी से जवाईबाबू के विषय में और बात करना चाहती थी। क्या जब वे बालक थे तब से ही ऐसे है? जब शारदा को ब्याहने जवाईबाबू आए थे तब तो ऐसे न थे।
अन्तत: प्रसन्नमयी जा न सकी किन्तु दो सखियाँ दुखसुख कहती उससे पूर्व शारदा के स्वामी के गाँव से उनकी बालसखी आई है, यह जानकर गाँव की स्त्रियाँ आने लगी। सब ठाकुर की विक्षिप्तता, उनके स्त्रीवेष और स्त्रियों जैसे आचरण के विषय में गप्प करना चाहती थी।
“सुनते है, शारदा के स्वामी के दूध से भरे स्तन भी उग आये। वह नारियों की भाँति धोती से इन्हें ढँके गंगास्नान करते है” एक बुढ़िया ने कहा।
दूसरी पीछे क्यों रहती, “स्तन तो होंगे ही, अब रजस्वला भी तो होते है शारदा के स्वामी”।
“चल हट, ऐसा तो कभी न देखा न किसी से सुना। ठाकुरमणि के पति के मस्तक में कीट होगा। स्त्रैण वस्त्र पहनकर नारियों सी भंगिमा ओढ़ना अलग बात है किन्तु प्रभु जिसे पुरुष बनाकर भेजे वह स्त्री बन सकता है क्या!” एक अतिवृद्धा ने कहा।
“उन्होंने श्रीराधासखी का रूप धरा है” एक तरुणि बोली। उसे यह गल्पकाण्ड अच्छा नहीं लग रहा था।
श्यामसुन्दरीदेवी दूसरे कमरे में बैठी मौन रो रही थी। शारदा स्त्रियों को कभी जल दे रही थी तो कभी मूड़ी-बताशे ला रही थी। प्रसन्नमयी देर तक सब सुनती रही। फिर अपनी साड़ी झटकारती खड़े होकर कहने लगी, “आप सबको शारदाभाभी के स्वामी की इतनी चिन्ता करते देख अच्छा लगा। आप निश्चिन्त रहे बड़दा कुशल-मंगल है और अगली पूर्णिमा को शारदा अपने स्वामी के घर चली जाएगी। नमस्कार।”
शारदा मुकुलित लोचन प्रसन्नमयी को निहारती रही। ठाकुर के संग रहने की बात सुनकर भी मन कैसा पुलककर कदम्बफूल हो जाता है किंतु ठाकुर ने तो शारदा को ले जाने की बात कभी की ही नहीं; तब क्या केवल प्रसन्नदी ने ठाकुर के विषय में लोकोपवाद को शान्त करने के लिए यह कहा। यह क्या किया प्रसन्नदी ने, अब यदि पूर्णिमा के पश्चात् भी यहीं रही तो जगत को क्या मुख दिखाएगी शारदा?
यह सब देख-सुनकर प्रसन्नमयी सायंकाल को ही लौट गई। प्रसन्नमयी को क्या पता था कि आवेश में उसकी कही बात को रखने के लिए दूसरे ही दिवस शारदा को दक्षिणेश्वर जाने के लिए निकलना होगा। जिस दिन प्रसन्नमयी ने पूर्णिमा को शारदा के ठाकुर के घरगमन की बात कही थी उस दिन त्रयोदशी थी।
रामचन्द्र मुखोपाध्याय आए तो जननी-आत्मजा दोनों को सूझ ही नहीं पड़ रहा था कि महाशय मुखोपाध्याय को कैसे शारदा की दक्षिणेश्वर जाने की इच्छा के विषय में बताए। दोनों देर तक गृहस्वामी की थाली पर झुकी चने की दाल और पूड़ियाँ परोसती रही और संसारभर की बात करती रही।
साहस बटोरकर अंत में श्यामसुन्दरीदेवी ने ही कहा, “माघी पूनो का पर्वस्नान करने शारदा को गाँव की स्त्रियों के संग दक्षिणेश्वर भेज दे क्या?”
रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने नेत्र उठाकर शारदा को देखा तो वह आड़ लेकर खड़ी हो गई। शारदा को अनुभव हुआ पिता ने उसके ह्रदय को पोथी की भाँति पढ़ लिया था। रामचन्द्र मुखोपाध्याय खाते रहे। उन्होंने एक शब्द नहीं कहा। हताश शारदा भीतर ठाकुरघर में जाकर बैठ गई। पति के निकट जाने की आज्ञा कोई पुत्री पिता से माँगती है भला! छी: कैसी निर्लज्जता!
हताश शारदा भीतर ठाकुरघर में जाकर बैठ गई। पति के निकट जाने की आज्ञा कोई पुत्री पिता से माँगती है भला! छी: कैसी निर्लज्जता!
माथा भूमि पर रखकर सोचते सोचते शारदा सो गई। ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व घर पर खटपट होने पर शारदा जागी तो चौके में कोई कचौरियाँ बना रहा था। शारदा ने बैठे बैठे ही सोकर रात्रि काट दी थी। तुरन्त चौके में गई तो श्यामसुन्दरीदेवी जलपान की व्यवस्था कर रही थी। पिता भी जाग गए थे।
“पौ फटते ही चलेंगे तो रात्रि तक पहुँच जाएँगे। तू चल तो पाएगी न शारदा इतनी दूर?” रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने शारदा से पूछा।
“चलेगी क्यों नहीं! ऐसी कर्मठ बेटी है मेरी” श्यामसुन्दरीदेवी ने उत्तर दिया।
“उसे जाने का अभ्यास नहीं है न; इस कारण पूछ रहा हूँ।” रामचन्द्र मुखोपाध्याय बोले।
शारदा पोटली में अपनी धोतियाँ बाँधने लगी। उसे यात्रा करने की बहुत जल्दी थी। मुखोपाध्याय दम्पति देखते थे कि अभी शारदा कपड़े बाँध रही थी और अभी नहाने चली। फिर अचानक ठाकुरघर में दीपक लगा रही है। ऐसा उल्लास तो राधा में था रमापति से मिलने का।
कचौरी बाँधकर दोनों जब तक दौड़े दौड़े दक्षिणेश्वर जाने के मार्ग पर पहुँचे, जयरामवाटी के जन निकल चुके थे। मार्ग ऊबड़खाबड़, दस्युओं और हिंस्र पशुओं से भरा और बहुत लम्बा था किन्तु शारदा ऐसी चली जाती थी जैसे भगवान से मिलने राधा बिच्छू-नाग उलाँघती, अमा के अन्धकार में दौड़ी चली जाती थी।
(क्रमशः जारी…)