सत्य नारायण निशोद/

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को लेकर दक्षिणपंथी नेताओं के बयान पहली बार नहीं आए है। इससे पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है। ऐसी कोशिशों में 2014 के बाद से अप्रत्याशित तेजी देखी जा रही है। वो चाहे राजस्थान के अलवर में पुल का नामकरण ‘राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे’ कर दिया गया हो या फिर अलीगढ़ के नौरंगाबाद में हिन्दू महासभा की नेता पूजा शगुन पांडेय द्वारा बापू के प्रतिकात्मक पुतले को गोलियों से दागा जाना हो।
दरअसल, भाजपा के मंदिर, मस्जिद और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे जनता को उद्वेलित नहीं करते है। इसकी जगह जनता बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के सवाल ज्यादा उठाती है। ऐसे में छद्म वाद की राजनीति करती आई भाजपा यह आंकलन करने की कोशिश में लगी हुई है कि क्या आगे का चुनाव नेहरू बनाम मोदी की तरह गोडसे बनाम गांधी हो सकता है!
वर्तमान भाजपा पार्टी की रणनीति दिखाई पड़ती है कि विवादित मुद्दों पर अंतिम पंक्ति के नेताओं की बेहूदा बयानबाजी शुरू होती है। इसके बाद छुटभैये नेताओं और जिला जनपद स्तर के प्रतिनिधियों से टपरे टोलों पर बहस कराई जाती है। धीरे-धीरे मुद्दे को हवा मिलते ही सांसद विधायक खुलकर बोलने लगते हैं। और यही वह समय होता है जब मुद्दे का सामने से दबा कर पीछे से चिंगारी में पेट्रोल डालने का काम किया जाता है।
भाजपा का किसी विवादित मुद्दे को मुख्यधारा में लाने का एक तरीका है. ऐसी बात पहले किसी ऐसे से कह्वाया जाता है जिसे आसानी से पल्ला झाड़ा जा सके. उसके बाद बात गली-मोहल्लों में जाती है और फिर कोई बड़ा नेता उसके समर्थन में अपना बयान देता है
हो सकता है भाजपा से भोपाल की उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने अचानक कहा हो कि नाथुराम गोडसे देशभक्त था और है और रहेगा। और शायद भाजपा आलाकमान को इसकी भनक भी न हो कि प्रज्ञा ऐसा कुछ भी कह सकती है। लेकिन, संघ-भाजपा को नजदीक से जानने वाले कहते है कि निजी बातचीत में इनके नेताओं को राष्ट्रपिता की खुले मन से तारीफ करते कभी नहीं देखा गया। या फिर ऐसा कभी कोई बड़ा आयोजन सामने नहीं आया है जिसमें इन संगठनों ने गांधी के मूल्यों पर कोई गोष्ठी, परिचर्चा या विमर्श का आयोजन किया है।
बहरहाल, अंतिम चरण की 59 सीटों पर आने वाले नतीजों से यह तय होगा कि देश में गांधी को लेकर अब कितना अपनत्व बाकी है। क्या उनकी हत्या के 71 साल बाद भी वे उतने ही प्रासंगिक हैं! या फिर उन्हें भी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की तरह सवालों के घेरे में खड़ा किया जा सकता है!
2014 के लोकसभा चुनाव का आंकलन करें तो प्रचंड बहुमत से जीती भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाले एनडीए को अंतिम चरण की 59 में से 39 सीटें हासिल हुई थीं। इनमें उत्तर प्रदेश की 13 और हिमाचल प्रदेश की 4 समेत चंडीगढ़ की इकलौती सीट पर भाजपा ने जीत का परचम लहराया था। साथ ही मध्यप्रदेश की सभी 8 (बाद में रतलाम झाबुआ सीट खोनी पड़ी थी), झारखंड की 3 में से 1, बिहार की 8 में से 7 (जदयू की 1 सीट छोड़ कर) सीटों पर जीत हासिल कर विरोधी दलों को चारों खाने चित्त कर दिया था। इसके अलावा एनडीए को पंजाब की 13 में से 5 सीटें मिली थी। जिसमें से 4 सहयोगी अकाली दल के हाथ लगी थी। लेकिन, अकेला पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य था जहां पर अंतिम चरण में हुए मतदान की 13 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी।
अब हम बात करते है। इन सीटों पर होने वाले नफे-नुकसान की। कयासों का दौर जारी है। जानकारों का दावा है कि प्रज्ञा ठाकुर, सहित अन्य नेताओं का बयान अनायस या बेवजह नहीं आया है। यह एक सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है। वरना राष्ट्रीय गरिमा के मामले पर आंखें लाल करके बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेबस और लाचार चेहरा लिए यह तो कभी नहीं कहते कि ‘मैं माफ़ नहीं करूँगा।’ वे चाहते तो तत्काल प्रज्ञा ठाकुर पर कार्यवाही कर सकते थे। किन्तु उन्होंने तुरंत कोई कार्रवाई करने की जगह 10 दिनों में जवाब मांगकर मुद्दे पर होने वाली बहस को समझने की कोशिश की है।
इस बीच चुनाव परिणाम आ ही जाएंगे। ऐसे में इस अपराध पर जवाब तलब करना बेमानी होगी। दरअसल, इसके पीछे रणनीति कुछ और ही है। अगर इन 59 सीटों के नतीजे भाजपा के पक्ष में आए तो गोडसे को देशभक्त साबित करने के एजेंडे पर ही अगले पांच साल आगे बढ़ा जाएगा। साथ ही नेहरू की तरह आजादी के लड़ाई में महात्मा गांधी का योगदान का तुलनात्मक मूल्यांकन किया जाएगा। इसकी ठोस वजह भी है।
दरअसल, हाल ही में मध्यप्रदेश की रतलाम-झाबुआ सीट से भाजपा प्रत्याशी जीएस डामोर का एक वीडियो वायरल हुआ था। जिसमें चुनाव प्रचार के बीच वे यह कहते हुए सुने जा रहे हैं कि देश के बंटवारे का नायक मोहम्मद अली जिन्ना एक विद्वान व्यक्ति था। नेहरू की जगह उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाता तो संभवत: 1947 में देश का बंटवारा ही न होता।
जरा सोचिए क्या कोई लोकसभा सीट से उम्मीदवार इतना नासमझ होता है कि वह देश के टुकड़े करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा करने की चूक कर जाए। वह भी तब जब सोशल मीडिया के दौर में एक एक शब्दों और तर्कों को बार-बार रिप्ले करने का अवसर मिल रहा है। यह वह दौर नहीं है कि जब बेहूदा और फूहड़ बयानबाजी को कह दिया जाता था कि ‘हुआ तो हुआ’। अब तो हर बयान का भूत-भविष्य के नजरिए से आकलन होने दौर है।
ऐसे में यह तथ्य गले नहीं उतरता कि यह फलां नेता का बयान निजी है और उनसे माफी मांगने को कहा जाएगा। जो भी हो 23 मई के परिणाम ही बताएंगे कि अगले पांच साल भाजपा किस एजेंडे की तरफ बढ़ेगी। अगर बहुमत से जीते तो समझिए पांच साल ऐसे नजारे कई बार देखने को मिलेंगे जब मंत्री हत्या के आरोपियों को माला पहनाने घर तक चले जाएंगे। साथ ही किसी पुल भवन का नामकरण ऐसी ‘प्रतिभाओं’ के नाम पर हो जाए जिन्हें न तो इतिहास में कोई जानता था न वर्तमान में उनके कारनामों से देश का रत्ती भर भी हित हो।
(समसामयिक मुद्दों पर पैनी नज़र रखने वाले लेखक भोपाल में रहकर पत्रकारिता और वकालत कर रहे हैं.)