रजनीश जे जैन/
एक अच्छे गीत की मोटी विशेषता सिर्फ इतनी होती है कि समय की परतों में दबा होने के बावजूद किसी प्रसंग या जिक्र के चलते उसका मुखड़ा या अंतरा मन में गूंज उठता है।’ मन क्यूँ बहका रे बहका, आधी रात को’ ऐसा ही गीत है। लता आशा की मीठी मादक जुगलबंदी ने इस गीत को अमर कर दिया है।

वर्ष 1984 में शशि कपूर द्वारा निर्मित और गिरीश कर्नार्ड निर्देशित ‘उत्सव’ का यह गीत तीन दशक बीतने के बाद भी नया नवेला लगता है। आप इस गीत को भूले बिसरे गीतों की कतार में खड़ा करने का दुस्साहस नहीं कर सकते। सिर्फ गीत ही नहीं वरन फिल्म को भी आसानी से नहीं बिसार सकते।
भारतीय सिनेमा के सौ साला सफर में अंग्रेजी राज, मुग़ल काल को केंद्र में रखकर दर्जनों फिल्में बनीं हैं। ये पीरियड फिल्में सफल भी रहीं और सराही भी गयीं। परन्तु भारत के समृद्ध शास्त्रीय एवं साहित्य संपन्न काल पर ‘आम्रपाली (1966),’ उत्सव (1984 ) और दूरदर्शन निर्मित ‘भारत एक खोज’ के दर्जन भर एपिसोड के अलावा हमारे पास इतराने को कुछ भी नहीं है।
ईसा से पांच शताब्दी पूर्व मगध सम्राट अजातशत्रु एक नगर वधु पर आसक्त हुए और उसे हासिल करने के लिए उन्होंने वैशाली को मटियामेट कर दिया। उतरोत्तर आम्रपाली भगवान् बुद्ध की शिष्या बन सन्यासी हुई। ऐतिहासिक दस्तावेज और बौद्ध धर्मग्रन्थ इस घटना की पुष्टि करते है। शंकर जयकिशन के मधुर संगीत, लता मंगेशकर के सर्वश्रेष्ठ गीतों, वैजयंतीमाला के मोहक नृत्यों, भानु अथैया के अजंता शैली के परिधान रचना के बावजूद ‘आम्रपाली’ असफल हो गई। बरसों बाद भानु अथैया को ‘गांधी’ फिल्म में कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग के लिए ‘ऑस्कर’ से नवाजा गया।
ईसा बाद चौथी शताब्दी में क्षुद्रक रचित संस्कृत नाटिका ‘मृच्छकटिकम’ (मिटटी की गाडी) पर आधारित ‘उत्सव’ हमें ऐसे समाज से रूबरू कराती है जो वैचारिक रूप से उदार है। जहाँ मजबूत सामाजिक अंतर्धारा विद्यमान है। फिल्म का सूत्रधार (अमजद खान) हमें बताता है कि इस काल में हर कर्म को कला का दर्जा दिया गया था। चोरी, जुआं एवं प्रेम भी कलात्मक रीति से किये जाते थे। यद्यपि ऐतिहासिक प्रमाण इस तथ्य से सहमत नहीं हैं।
फिल्म का कथानक ‘गुप्तकालीन’ है। यह वह समय था जिसे भारत का स्वर्ण युग कहा गया। उत्तर एवं मध्य भारत में बसंत आगमन को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा इसी समय आरम्भ हुई मानी जाती है। एक लोकोक्ति के अनुसार बसंत कामदेव के पुत्र थे। कामदेव का आह्वान करने के लिए भी इस उत्सव को मनाया जाता है। निर्देशक गिरीश कर्नार्ड ने फिल्म को श्रृंगारिक टच देने के लिए ‘कामसूत्र’ के रचियता ऋषि वात्सायन का पात्र कथानक में जोड़ा है जो कि मूल नाटक में नहीं है। कामसूत्र का रचनाकाल भी इसी समय को माना जाता है। इस काल में जीवन के प्रमुख उद्देश्यों में काम, अर्थ, और धर्म को माना गया है।
फिल्म उत्सव महज पीरियड फिल्म या कॉस्ट्यूम ड्रामा नहीं थी। यह मनुष्य के श्रृंगार, सौन्दर्य, प्रकृति और कला को जीवन में समाहित करने का आग्रह करती है। फिल्म का कथानक उज्जयनी की गणिका वसंतसेना (रेखा) और गरीब विवाहित ब्राह्मण चारुदत्त (शेखर सुमन) की प्रेमकहानी और खलनायक संस्थानक् (शशि कपूर) की वसंतसेना को हरने की चालाकियों के इर्द-गिर्द घूमता है। ‘आम्रपाली’ की ही तरह ‘उत्सव’ भी व्यावसायिक रूप से असफल हुई। इस फिल्म की घोर असफलता ने शशिकपूर को वर्षों तक कर्ज में दबाए रखा।
बसंत ऋतु के आगमन का उदघोष करने वाली ‘उत्सव ‘ संभवतः पहली और अंतिम फिल्म है।
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)