चन्दन पाण्डेय/
रोहिंग्या लोग तारीखी जहर का दंश झेल रहे हैं. न जाने कितनी रोहिंग्या आबादी का बसर समुद्री नावों पर हो रहा है. जमीन और कई सारे देश उन्हें नकार चुके हैं. म्याँमार उन्हें देश निकाला दे चुका है, उन्हें नागरिक ही नहीं मानता जो सैकड़ों वर्षों से वहीं है. जान बचाकर आए लोगों को बांग्लादेश ‘रिफ्यूजी’ कहता है और उन्हें वापस भेजना चाहता है. इंडोनेशिया और थाईलेंड उन्हें अस्वीकार कर चुके हैं. फिलीपिंस का रुख मालूम नहीं पर वह सुदूर इतना है कि जाना भी सम्भव नहीं.
समुद्री नावें भी उनके खून पर उतारू हैं. लोग, सपरिवार, उन जहाजों पर मार दिए जा रहे हैं.
यह समस्या किसी धर्म या जाति विशेष की न होकर समूची मानव सभ्यता की है. इक्कीसवीं सदी में अगर मनुष्य का यह हाल है कि उसके पास पैर टिकाने भर की जगह नहीं या माहौल इतना गन्दा है कि सरकारे आम लोगों से डर कर दंगे करा रही हैं तो ताज्जुब होता है. हँसी आती है इकबाल पर कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ क्या सोचकर लिखा होगा साहब ने. मजहब से गन्दा आविष्कार इस दुनिया में सिर्फ जाति ही है, वरना नीच-कर्म में मजहब का कोई तोड़ नहीं. मजहब सिर्फ और सिर्फ बैर करना सिखाता है. बर्मा/ म्याँमार में बौद्ध बहुल आबादी है, जो पारिभाषिक तौर पर अपनी सहिष्णुता के लिए ख्यात है. उनका यह हाल कि आये दिन दंगे हो रहे हैं. रोहिंग्या लोगों की हत्यायें उस आबादी विशेष का शगल है.
ईस्ट इंडिया कम्पनी और अन्य शासकों ने उनके साथ वही किया जो रसोईया रोटी के साथ तवे पर करता है. इधर-उधर / उलट – पलट. इस मसले को समझने की कोशिश में गूगल की मदद अपूर्ण है. गूगल की सूचनाएँ यह कहते हुए बाज नहीं आती कि रोहिंग्या लोगों के साथ अन्याय तो हुआ है पर ये लोग भी ‘कम’ नहीं.
कहने को लोग कह रहे हैं कि सदियों से मुस्लिम आबादी उस क्षेत्र में है, जो होगी भी पर यह जाँची परखी बात है कि रखिने घाटी की उपजाऊ धरती को दूहने के लिए अन्ग्रेजों ने बांग्लादेशी ( तत्कालीन भारत ) आबादी को बतौर मजदूर उस ईलाके में ‘शिफ्ट’ किया. बसाया. उस समय अंतर्राष्ट्रीय लकीरें इतनी कट्टर न थीं और लोग वहीं अपनी बसावट जमा लिए. कहते हैं, उसी समय से वहाँ के बहुसंख्यकों को इस मजदूर आबादी से दिक्कत है. दर्ज इतिहास की मानें तो अंग्रेजों ने इस रोहिंग्या आबादी को हथियार मुहैया कराए, जापानियों से लड़ने के लिए, पर इसका इस्तेमाल इन भाईयों ने 1942 के नरसंहार में किया. जिसमें 15000 से अधिक बौद्ध और 5000 से अधिक रोहिंग्या मारे गए थे. तभी से वहाँ की हवा जहर-बुझी है. हालाँकि यह घटना और इसका जिक्र अपने इकहरेपन में सदेह पैदा करता है. इसके बाद बहुसंख्यकों ने और सरकारों ने इन्हें कुचलने में कोई कसर न छोड़ी. 1982 में रोहिंग्या के इन मुसलमानों से नागरिक का दर्जा भी छिन गया.
रोहिंग्या लोगों का जीवन कचोट रहा है. जो समुद्र की नावों पर नहीं है वो ‘कैम्पों’ में जीवन बिताने को अभिशप्त हैं. यह सब लिखते हुए भी उम्मीद की कोई किरण इनके लिए नजर नहीं आ रही.
(रोहिंग्या समुदाय के लोगों के यथास्थिति पर यह टिपण्णी लेखक ने 2015 में लिखी थी. यह लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है.)