जितेन्द्र राजाराम/
लालू प्रसाद यादव छात्र नेता थे और जय प्रकाश नारायण के गांधीवादी मशाल के प्रमुख वाहक. उसी दरम्यान एक खबर आग की तरह फैली कि लालू यादव की हत्या हो गयी है. पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के इस नेता के हत्या की अफवाह फैलते ही पटना शहर बेचैन हो उठा था और किसी अनहोनी के डर से प्रशासन के भी हाथ-पैर फूल गए थे. प्रशासन को इससे निपटने का एक ही रास्ता सूझा. लालू यादव को रेडियो स्टेशन ले जाया गया. प्रशासन के कहने पर लालू यादव रेडियो स्टेशन में बैठकर अपनी मृत्यु की अफवाह को गलत साबित कर रहे थे और लोगों से शांति बनाए रखने की अपील भी.
वही लालू प्रसाद यादव फिलहाल जेल जा चुके हैं. चारा घोटाले में आरोपी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) प्रमुख को साढ़े तीन साल की कैद की सजा हुई है. यह सजा एक सामान्य अपराध, अपराधी और न्याय की कहानी में फिट नहीं बैठता. इस किस्से के कई आयाम हैं जो आजकल बहस का हिस्सा हैं. कुछ लोग इसे राजद के सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी होने की सजा मान रहे हैं तो कुछ लोग कानून व्यवस्था का कमाल.
लेकिन इससे इतना तो तय होता है कि लालू प्रसाद यादव एक व्यक्ति या राजनितिक व्यक्ति से अधिक एक राजनीति हैं. एक फिनोमेना जिसे समझे बिना कुछ भी बात करना लफ्फाजी ही माना जाना चाहिए.
न्याय की राजनीति या राजनितिक न्याय
लालू प्रसाद यादव ने सच में अपराध किया या नहीं और यह सजा कितनी जायज़ है इस पर कोई टिपण्णी करना उचित नहीं है. लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि लालू की राजनीति उस समय न्यायालय में सर चढ़कर बोल रही थी जब एक जज सजा सुनाते हुए भी उनकी जाति और पेशे पर टिपण्णी करने से खुद को नहीं रोक पाया. यही एक धागा है जिसके बूते लालू के पक्ष को समझा जा सकता है.
लालू उस राज्य के नेता हैं जहां का बच्चा भी राजनितिक खेल की समझ रखता है और यही वह डीएनए है जिससे सांप्रदायिक राजनीति और मनुवाद को खतरा दिखता रहा है. कभी खुद लालू तो कभी उनके विपक्षी नितीश भी साम्प्रदायिकता को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं. यह लालू प्रसाद की उपलब्धि ही है कि भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े होने पर भी नितीश कुमार को यदा-कदा साम्प्रदायिकता के खिलाफ राजनीति करनी पड़ती है.
लालू उस राज्य के नेता हैं जहां का बच्चा भी राजनितिक खेल की समझ रखता है और यही वह डीएनए है जिससे सांप्रदायिक राजनीति और मनुवाद को खतरा दिखता रहा है
जब आधुनिक भारत का इतिहास लिखा जाएगा तो चाहे जैसा भी इतिहास हो सोमनाथ से अयोध्या तक निकाली गई रथ यात्रा का ज़िक्र जरुर आएगा. उस रथ में दो ही लोग सवार थे एक भारतीय जनता पार्टी को यहाँ तक लाने वाले लालकृष्ण अडवाणी और इस पार्टी को आगे ले जाने का जिम्मा थामे नरेन्द्र मोदी. मोदी ने तो बिहार के डीएनए पर एक बार सवाल खड़ा भी कर दिया है.
खैर जब इस यात्रा की चर्चा होगी तो इसके साथ इसके रोकने वाले का भी ज़िक्र आएगा ही और लालू प्रसाद यादव प्रासंगिक हो उठेंगे. अम्बेडकर की लिखी पुस्तक एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट को पुनः एक परिचय के साथ प्रकाशित किये गए अपनी किताब में उन्होंने लालू प्रसाद यादव के एक कथन का ज़िक्र किया है “कौन माई का लाल है जो यहाँ से रथ निकलेगा? छाती चीर देंगे!”
हाल में हुए बिहार के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के जीत के घोड़े को एक ही शख्स ने रोका और वे थे लालू प्रसाद यादव. यह एक पक्ष है जो बहुत मजबूत है और दूसरी तरफ है बिहार में राजद के शासन के दौरान कुशासन. राजद की सरकार के समय में बिहार बैड गवर्नेंस का एक अलहदा उदाहरण था. जिसे ख़ारिज करना एकतरफा बयान होगा. ख़ारिज करने वाले वैसे कम नहीं है.
वैसे लालू प्रसाद यादव ने इससे निपटने के लिए गुड गवर्नेंस का भी एक नमूना पेश किया है जो उतना ही काबिलेगौर है. बतौर रेल मंत्री भारतीय रेलवे को बिना किसी छटनी या कास्ट कटिंग के भी मुनाफे का संयंत्र बना कर दिखाया. बिना टिकट के दाम बढ़ाए गाड़ियां सही समय पर चलाईं. स्थानीय पेशे को रेलवे के रोजमर्रा की सेवा का हिस्सा बनाया.
लेकिन जब गवर्नेंस की बात होती है तो सिर्फ बिहार के शासन की बात होती है बतौर रेलमंत्री किये गए उनके काम को धीरे से किनारे कर दिया जाता है
लेकिन जब गवर्नेंस की बात होती है तो सिर्फ बिहार के शासन की बात होती है बतौर रेलमंत्री किये गए उनके काम को धीरे से किनारे कर दिया जाता है.
इतना ही नहीं ये सचेत होकर भूलने वाले पिछले चार दशकों (1976-2018) तक बिहार और भारत की राजनीति की धुरी रहे लालू प्रसाद यादव को सिर्फ और सिर्फ उसी चश्मे से देखना चाहते हैं जिसमें उन्हें गोबर और चारा दिखता है. हावर्ड में दिए गए लालू यादव के भाषण और वकालत की उनकी डिग्री को चारे के नीचे दबा दिया जाता है.
इसमें मीडिया ने तो पूरी तरह यह चश्मा लगा ही रखा है पर हद तो तब होती है जब न्याय की कुर्सी पर बैठा एक शख्स लालू यादव के जातिगत पेशे पर ऐसी ओछी टिपण्णी करने से खुद को रोक नहीं पाता.
इससे कम से कम इतना तो स्पष्ट होता है कि जब जज सजा सुना रहा होता है और मीडिया खबर प्रकाशित कर रही होती है तो लालू एक शख्स से अधिक राजनीति के तौर पर फ़्लैश कर रहे होते हैं. और शायद लालू न्यायालय में हारकर भी जीत रहे होते हैं.
(जितेन्द्र राजाराम इंदौर में रहते हैं और सामाजिक राजनितिक बहस में खासा दिलचस्पी रखते हैं. इन विषयों को समझने -समझाने के लिए वे इतिहास और आंकड़ो को अपना हथियार बनाते हैं. आप उनसे उनके नम्बर 9009036633 पर संपर्क कर सकते हैं.)