उमंग कुमार/
बीते एक तारीख को कोरेगांव युद्ध के दो सौ साल पूरे हो रहे थे और दलित समुदाय के लोग इसी अवसर पर वहाँ जमा हुए थे जब उनपर कुछ लोगों ने हमला कर दिया. इस हमले में दलित समुदाय से आने वाले एक व्यक्ति की जान चली गई और कईयों को चोट आई.
इसके बाद दलित समुदाय के लोगों ने इस हमले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. पुणे से चलकर मामला मुम्बई तक पहुँच गया जहां मीडिया में आ रही खबरों के अनुसार शहर बिलकुल खामोश कर दिया गया.
इस पूरी घटना की वजह से नए सिरे से एक बहस शुरू हुई. डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर के द्वारा शुरू किये गए इस सलाना आयोजन को, दलित अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाले अधिकतर लोग दमित महार और पेशवा के बीच लड़ाई, और महार समुदाय के जीत के तौर पर देखते हैं. इस पक्ष में पेशवा दमन करने वाले और महार दमित समुदाय के बीच की लड़ाई को मुख्य विषय माना जा रहा था. वहीँ कुछ लोग इस आयोजन पर प्रश्न उठाते हुए भी नज़र आये. उनके तर्क थे कि अंग्रेज और पेशवा के जंग के बीच महार समुदाय की कैसी जीत. बल्कि एक बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबडे ने एक लेख लिखकर इस प्रतीक पर सवाल खड़ा किया. तेलतुंबडे एक ख्यात चिन्तक हैं जो दलित अधिकारों और उसकी लड़ाई को लेकर सक्रिय हैं.
ऊना की घटना के बाद ध्रुवीकरण हुआ और नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का गृह राज्य होने के बाद भी यहाँ चुनाव जीतने में भाजपा के पसीने छूट गए
लेकिन इस बहस के बीच एक बात जो छूट रही है वह कि ये कि क्या यह महाराष्ट्र का ऊना मोमेंट है. सनद रहे कि गुजरात में ऊना की घटना ने सरकार के खिलाफ लोगों को लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वर्ष 2016 के जुलाई महीने में चार दलित युवक मरे गाय से चमड़ी निकाल रहे थे जब खुद को गौ-रक्षक कहने वाले कुछ लोग दो गाड़ियों में आये और इन दलित युवकों की बेरहमी से पिटाई की. इसका वीडियो खूब वायरल हुआ. गुजरात में दलित समुदाय के लोगों ने बड़े पैमाने पर आन्दोलन चलाया. इसमें विरोध प्रदर्शन, मरी गायों को नहीं उठाना इत्यादि शामिल थे. जिग्नेश मेवानी ने गुजरात चुनाव में इसको मुद्दा बनाकर दलित समुदाय के लोगों को एकसाथ लामबंद करने की कोशिश की और सफल भी रहे.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वर्तमान में गढ़ माना जाने वाला राज्य उस घटना के दो साल बाद विधानसभा चुनाव में उतरने वाला था. यानि बीते दिसंबर में. ऊना की घटना के बाद ध्रुवीकरण हुआ और नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का गृह राज्य होने के बाद भी यहाँ चुनाव जीतने में भाजपा के पसीने छूट गए. इसमें जिग्नेश मेवानी और अन्य दो नेता जो अपने समुदाय को लेकर लड़ाई लड़ रहे थे उनकी महती भूमिका रही.
ठीक इसी तरह महाराष्ट्र में भी करीब दो साल बाद यानी अक्टूबर 2019 में विधानसभा का चुनाव होना है. उसके पहले लोक सभा के लिए भी केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल को मैदान में उतरना होगा. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कोरेगांव में हुई यह घटना ऊना की तरह ही लोगों को भाजपा के प्रति लामबंद करने में सफल होगी?
कुछ और बातें भी गुजरात और महाराष्ट्र में समान हैं. गुजरात में जहां ताकतवर समुदाय पाटीदार आरक्षण की मांग कर रहे थे वहीं महाराष्ट्र में भी मराठा आरक्षण की मांग कर रहे हैं
कुछ और बातें भी गुजरात और महाराष्ट्र में समान हैं. गुजरात में जहां ताकतवर समुदाय पाटीदार आरक्षण की मांग कर रहे थे वहीं महाराष्ट्र में मराठा भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ये मराठा जो पारंपरिक तौर पर ताकतवर समुदाय से हैं, उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. अलबत्ता एक बात यहाँ गौर करने की है कि गुजरात में पाटीदार समुदाय के आरक्षण माँगने के बावजूद हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी के निशाने पर एक ही दल था और इनमें आपस में कोई विवाद नहीं था. कम से कम तात्कालिक तौर पर. देखना होगा कि क्या किसी वजह से मराठा और महाराष्ट्र के दलित और कमजोर वर्ग के लोग एक साथ आ सकेंगे.
इसके अतिरिक्त गुजरात और महाराष्ट्र में एक और बात समान है. गुजरात के किसानों ने लगभग भाजपा के खिलाफ वोट दिया. ऐसा कहा जा रहा है कि आपदा से परेशान किसान अपनी फसलों के सही दाम नहीं मिलने की वजह से परेशान हैं इसलिए उन्होंने भाजपा सरकार के खिलाफ वोट दिया. चूंकि केंद्र और राज्य दोनों जगह एक ही दल सत्ता में है इसलिए ये किसान अब कोई भी बहाना सुनने को तैयार नहीं हैं और सरकार से किसानों के हित में जरुरी कदम उठाने की मांग कर रहे हैं.
इसी तरह महाराष्ट्र में भी किसानों की स्थिति कोई बेहतर नहीं है. तमाम प्रगति के बावजूद भी महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहाँ किसानों द्वारा आत्महत्या करना एक आम बात हो गई है. किसान यहाँ भी तनाव में हैं. दूसरे, महाराष्ट्र में भी ऐसी ही स्थिति है कि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार है, मतलब यह कि यह बात भी वर्तमान सरकार के खिलाफ जाएगी. खासकर तब जब गुजरात का वोट करने का तरीका अपनाया गया.
देखना यह होगा कि महाराष्ट्र में शुरू हुआ दलित आन्दोलन गुजरात वाले रास्ते ही जाता है या कोई दूसरी दिशा लेता है…