रजनीश जे जैन/

अपने विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ में गेब्रियल गार्सिआ मार्केज ने लिखा है ‘सुखद वृद्धावस्था के लिए आपको एकांत के साथ सम्मानीय समझौता कर लेना चाहिए!’ गेब्रियल इस कथन में जीवन की शाम को सम्मान जनक ढंग से बिताने का राज बताते हुए इस अवस्था पर तंज करते हुए भी प्रतित होते है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उम्र के इस दौर की हजारों कहानियाँ और उनके पात्र हमारे चारों और बहुतायत में मौजूद हैं। उपेक्षित और अकेलेपन से जूझते हुए। कुछ वर्ष पूर्व एक प्रतिष्ठित संगठन ने उम्र की अंतिम दहलीज पर खड़ी पीढ़ी की मानसिक और शारीरिक जरूरतों पर सर्वेक्षण किया था। जैसी कि उम्मीद थी, परिणाम दिल दहलाने वाले आये थे। अकेले भारत में ही पैंसठ प्रतिशत से अधिक बुजुर्ग अपनों की ही उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। इसी प्रकार एक तिहाई बुजुर्ग शारीरिक और शाब्दिक हिंसा झेलने को मजबूर हैं। इसी सर्वेक्षण ने यह भी उजागर किया कि भारत में हर चौथे बुजर्ग का उसके ही परिवार ने आर्थिक या मानसिक शोषण किया है।
धर्म और राजनीति की चर्चाओं से भरे समाचार पत्रों में यदाकदा संवेदन शून्यता की ऐसी भी कहानियाँ सामने आ जाती है जहाँ विदेश में बसे पुत्र को घर लौटने पर महीनो अंदर से बंद मकान में अपनी माँ का पिंजर मिला! कभी समर्थ रहे लोगों की नजरअंदाजी का दृश्य हमारे समाज में आम होता जा रहा है। बुजुर्गों के प्रति लापरवाही और हिकारत की घटनाएँ हमारे आसपास इतने बड़े पैमाने पर होती है कि बारम्बार होने की वजह से वे समाज के मानस को वैसे नहीं झझकोरती जैसा किसी अन्य घटना पर उबाल देखने को मिलता है। न ही इस तरह की घटनाओ को समाचार माध्यमों में स्थान मिलता है जब तक की वे किसी स्थापित शख्सियत को अपना शिकार नहीं बनाती। ताजा उदाहरण बानवे वर्षीय नामचीन संगीतकार वनराज भाटिया का है।
वरिष्ठ अभिनेता कबीर बेदी के ट्वीट से दुनिया को मालुम हुआ कि अपने समय के प्रतिभाशाली संगीतकार वनराज भाटिया आर्थिक और शारीरिक परेशानियों के चलते नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। मुख्यधारा के सिनेमा से इतर कालजयी कला फिल्मों ‘अंकुर’, ‘भूमिका’, ‘जूनून’, ‘36 चोरंगी लेन’, ‘मंडी’, ‘जाने भी दो यारो’ और ‘रेडियों जिंगल’ के लिए कर्णप्रिय संगीत रचने वाले वनराज भाटिया उन चुनिंदा संगीतकारों में शुमार है जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक की विधिवत शिक्षा हासिल की है। रॉयल अकादमी से शिक्षित वनराज भाटिया लंदन से गोल्ड मैडल लेकर लौटे। अस्सी के दशक से टेलीविज़न देख रहे दर्शकों के लिए वनराज का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। ‘भारत एक खोज’, ‘यात्रा’, ‘तमस’ जैसे अविस्मरणीय धारावाहिकों में संगीत रचने वाले वनराज उम्र की ढलान पर अकेलेपन और अवेहलना से जूझ रहे हैं।
रौशनी के घेरे में चुनचुनाती चंचल छवियों के पीछे कितना अँधेरा है इससे देश और दर्शक इत्तेफाक नहीं रखता। अक्सर वे ही लोग स्मृतियों में रहते है जो रौशनी की जद में होते है। स्पॉटलाइट हटते ही उनकी खैर खबर पूछने वाला कोई नहीं होता। वनराज इस लिहाज से किस्मत वाले है कि उन्हें तुरंत आर्थिक सहायता मिल गई अन्यथा अतीत में अपने जमाने के सुपर स्टार भगवान् दादा, भारत भूषण, अचला सचदेव, लगान फिल्म के ईश्वर काका (श्रीवल्लभ व्यास) हिंदी फिल्मों में नायिका की छवि को आधुनिकता का तड़का देने वाली परवीन बॉबी, दक्षिण फिल्मों के चिर परिचित खलनायक रामी रेड्डी, संजय दत्त को बॉडी बिल्डिंग के लिए प्रेरित करने वाले गेविन पैकार्ड आदि इतने भाग्यशाली नहीं थे। इन लोगों के अंतिम समय में इनकी पूछपरख करने वाला कोई नहीं था। दो सौ से अधिक फिल्मे कर चुके चरित्र अभिनेता ए के हंगल की सुध भी तब ली गई थी जब समाचार पत्रों में उनकी बिगड़ती तबियत और आर्थिक स्थिति के बारे में लिखा था।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे के नोबेल पुरूस्कार से सम्मानित उपन्यास ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ का बूढ़ा नायक सेंटिएगो यही सन्देश देता है कि जीवन और मृत्यु अटल सत्य है परन्तु जीजिविषा का उम्र से कोई लेना देना नहीं है। पश्चिम की तर्ज पर हर बड़े शहर में वृद्धाश्रमों का बनते जाना इंगित करता है कि हमारी तथाकथित संयुक्त परिवार प्रणाली की मियाद अब पूरी होने की तरफ बढ़ने लगी है। आज जो युवा है उनके लिए यह याद रखना जरुरी है कि एक दिन वे भी उम्र के उस मोड़ पर अपने को खड़ा पाएंगे जहाँ मौजूदा उपेक्षित पीढ़ी खड़ी है। वे लोग उम्र की कगार पर खड़ी पीढ़ी में अपना भविष्य देख सकते है।
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)