उमंग कुमार/
कहने वाले कह सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने हिंदी क्षेत्र के तीनों राज्य में चुनाव जीता तो है पर वैसे नहीं जैसे उम्मीद की जा रही थी. खासकर, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जहां जीत का अंतर इतना कम रहा कि लगभग सारे एग्जिट पोल गलत साबित हो गए. इस तर्क को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मजबूती से उठा रही है, यह साबित करने के लिए कि 2019 में कांग्रेस से उन्हें कोई खतरा नहीं है.
लेकिन कांग्रेसी नेताओं के चेहरे बताते हैं कि यह जीत उनके लिए कितना मायने रखती है. अगर दो सामान्य राजनितिक दलों के बीच यह मुकाबला होता तो सच में यह जीत कोई बड़ी कहानी नहीं कहती. लेकिन वर्तमान में कांग्रेस और भाजपा दो सामान्य राजनितिक दल नहीं है.
भाजपा के पास पांच ऐसे ‘एम’ हैं जिससे मुकाबला करना किसी भी सामान्य राजनितिक दल के लिए कठिन है. कांग्रेस तो फिर भी बहुत बुरे दौर से गुजर रही थी.
ये पांच एम है: मनी, मीडिया, मसल पॉवर, मंदिर-मस्जिद और मोदी. आईये इसको बारी बारी से समझते हैं.
मनी: अमीर भाजपा के सामने दूर-दूर तक कोई मुकाबले में नहीं है.
इसी साल के मई महीने में खबर आई थी कि कांग्रेस पार्टी के पास कई राज्यों में अपना ऑफिस चलाने भर के भी पैसे नहीं बचे हैं. वहीँ दूसरी तरफ कॉर्पोरेट से मिलने वाला लगभग सारा चंदा भाजपा के हिस्से में जा रहा है. उसी खबर के अनुसार, भाजपा को 2017 में कुल 1,034 करोड़ रूपया चंदा मिला और कांग्रेस को महज 225 करोड़ रुपये. भाजपा ने पोलिटिकल बांड का नया शिगूफा छोड़ा जिसमें राजनितिक दलों को चंदा देने वाले का नाम नहीं पता चलेगा. बीते नवम्बर में खबर आई कि इस बांड का 94 प्रतिशत से अधिक भाजपा के हिस्से में जा रहा है. यानि कुल 210 करोड़ रुपये.
ऐसे में कांग्रेस के लिए भाजपा से मुकाबला करना कोई सामान्य बात नहीं थी. खासकर, तब जब भारतीय चुनाव प्रणाली में पैसे का काफी बोलबाला होता है. चुनाव प्रचार से लेकर जनता में शराब और अन्य चीजें बांटने तक.
मीडिया से बात करते हुए राजनीतिज्ञ और किसानों के मुद्दे पर सक्रिय योगेन्द्र यादव ने तो यह तक कह दिया कि कांग्रेस का मुकाबला वर्तमान में अपने से पच्चीस गुना ताकतवर पार्टी से था.
मीडिया: भाजपा की तरफ से चुनाव लड़ने वाला चौथा खम्भा
इसी साल मई महीने में खबर आई कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने पिछले चार सालों में अपने प्रचार पर 4,300 करोड़ रुपये खर्च कर डाले. इसके खिलाफ बोलने वाले यह तर्क दे सकते हैं कि यह तो मोदी का आंकड़ा है पर इससे राज्यों को क्या लेना देना. इसलिए इसे बताते चलें कि नवम्बर के तीसरे सप्ताह में जारी एक आंकड़े के अनुसार टीवी पर सबसे अधिक विज्ञापन देने वालों की सूची में भाजपा सबसे ऊपर थी. इस पार्टी का मुकाबला किसी राजनितिक पार्टी से नहीं था बल्कि नेटफ्लिक्स, कोलगेट, डेटोल इत्यादि से था. इन विधानसभा चुनावों में दूसरी सबसे बड़े दल कांग्रेस का तो दूर तक कहीं नामोंनिशान भी नहीं था.
ये तो रहा पैसों का आंकड़ा. इसके अतिरिक्त लगभग सारे मीडिया चैनल जिसमें अंग्रेजी के रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाउ, हिंदी जी न्यूज़, एबीपी न्यूज़, इंडिया टीवी और तमाम अन्य चैनल तो खुलकर भाजपा के लिए बैटिंग कर रहे हैं. इन चैनलों को अपने बस में करने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. हाल ही में एबीपी चैनल पर पुण्य प्रसून वाजपेयी के शो के समय में सैटेलाईट में गड़बड़ी लाने का उदाहरण याद किया जा सकता है.
मसल पॉवर: अमित शाह, सीबीआई, चुनाव आयोग और अन्य सरकारी तंत्र का कॉकटेल
जब मसल पॉवर जैसी चीजों की बात करें तो यह तो सबको मालूम है कि भाजपा के पास एक ऐसा अनोखा खिलाड़ी है जिसको अमित शाह कहते हैं. इसके अतिरिक्त भाजपा के पास चुनाव आयोग, सीबीआई और तमाम अन्य संस्थाएं हैं जिसका इस्तेमाल करने से ये परहेज नहीं करते. जब से अमित शाह ने भाजपा अध्यक्ष का पद संभाला है किसी भी हद तक जाकर चुनाव जीतना ही उनकी प्राथमिकता रही है. चुनाव आयोग अब तक लोगों के ईवीएम पर होने वाले संदेह का कोई पुख्ता जवाब नहीं दे पाया है. यह हास्यास्पद ही माना जाएगा कि मध्य प्रदेश जो बिजली बनाने में सरप्लस राज्य है और वहाँ स्ट्रांग रूम में जहां ईवीएम रखे गए थे वहाँ एक घंटे के लिए बिजली चली जाती है. सीसीटीवी कैमरा काम नहीं करता. सरकार और आयोग के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं होती है. चुनाव आयोग इस पूरी खबर पर चुप्पी साध लेता है. ऐसे ढेरों उदाहरण हैं.
मंदिर-मस्जिद: समाज के ध्रुवीकरण के हथियार
मंदिर-मस्जिद और मोदी के बारे में अधिक बात करना इसलिए भी जरुरी नहीं है क्योंकि जो लोग विकास के मुद्दे पर सरकार चाहते हैं वे जानते हैं कि पिछले दो महीने से वर्तमान सरकार सिर्फ मंदिर पर बात करना चाहती है. पच्चीस सालों तक इंतज़ार करने के बाद भाजपा को अचानक मंदिर की बहुत याद आ रही है. इनके स्तर प्रचारक आदित्यनाथ अपने चुनावी प्रचार में विकास जैसे मुद्दे को छूते तक नहीं है. कुल मुद्दा गाय, मंदिर, शहरों के नाम बदलना और अन्य ऐसे मुद्दे ही होते हैं. चुनाव नजदीक आते ही दंगे कराना अब आम बात है. इस संचार क्रांति के युग में जहां चुनाव होता है उसके बगल के राज्य में ऐसा कुछ किया जाता है जिससे लोग बंट जाएँ. बुलंदशहर की घटना को उदाहरण माना जा सकता है जिसमें दंगाईयो ने एक पुलिस अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी.
मोदी: जिसके लिए जीतना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता है
पांचवा एम सबसे महत्वपूर्ण है. मोदी. इनके लिए जीत ही अहम् है. इसके लिए देश, समाज को चाहें कोई भी नुकसान क्यों न उठाना पड़े. पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि चुनावी प्रचार के दौरान ये जिस तरह से हमला बोलते हैं और प्रधानमंत्री रहते हुए सक्रियता दिखाते हैं, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है. उनके चुनाव प्रचार की शैली, भाषा और इसमें उनकी सक्रियता का कोई तोड़ अब तक किसी अन्य राजनितिक दल के पास नहीं है.
ऐसे में कांग्रेस अगर इन पाँचों एम से मुकाबला कर के तीन हिंदी भाषी राज्य में सरकार बनाने की स्थिति में आ पाई है तो यह मानना होगा कि कांग्रेस के लिए यह छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं बल्कि संजीवनी साबित होने वाला है.