विपिन चौधरी कविताओं के माध्यम से वैचारिकी की दुनिया में हस्तक्षेप करती रहीं हैं. इनकी कविताएँ किसी विचार को बिल्कुल नए ढंग से देखने की कवायद भी होती है. कविताओं के साथ समाज को देखने के लिए इनके पास और भी बहुतेरे लेंस हैं जिसकी मदद से ये समाज की तमाम अच्छी-बुरी बारीकियों को उजागर करती हैं. लोकगीतों के माध्यम से स्थानीय समाज को समझने की इनकी कोशिश शानदार है. इसके पहले भी इन्होने सौतुक पर लोकगीतों के माध्यम से हरियाणा के स्त्री-समाज का चित्रण किया था. आज इस लेख में हरियाणवी लोक को कुछ नए लोकगीतों के माध्यम से दिखा रहीं हैं . पढ़िए…

लोक की जड़ें आमजन के भीतर से ही पोषण पाती हैं. काले तीतर, जांडी, कीकर और हंसी-ठठे के लिए प्रसिद्ध हरियाणा प्रदेश अपनी खांटी विशुद्ध लोक-संस्कृति के लिए जाना जाता है. लोक-जीवन की सादगी, गाँव में मनाए जाने वाले ढेरों रीति-रिवाज़, लोक-मान्यताएं, परंपरागत रूढ़ियाँ, जीवन के दुःख-सुख, आशा-निराशा, मान-अपमान, ऊंच-नीच आदि से जुड़ी ढेरों अनुभूतियाँ क्षेत्र-विशेष की मिट्टी में समाहित हैं. प्रदेश के लोक-गीतों की स्वरलहरियों में छेड़छाड़, प्रेम, मिलन, विरह, उलाहना आदि के भावों का समावेश वहां की खालिस देसी संस्कृति का सही पता देते हैं. वहीं वसंत, ग्रीष्म ऋतु, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर ऋतु के लिए रचे गए गीत, बारह महीने उत्सव जैसा माहौल बनाए रखते हैं. इन गीतों को रचने वाली स्त्रियां अपनी अनुभूतियों से ही प्रेरित होकर इन मौलिक और मौखिक गीतों को अपने स्वर देती हैं. हर मौसम अपने साथ अलग मिज़ाज लेकर आता है और इन मौसमों में आने वाले त्योहार, दिनचर्या के कामों में छूट देते हुए मस्ती करने का अवसर प्रदान करते हैं.
वसंत ऋतु यानी मार्च से मई तक चैत और वैशाख के मौसम में वंसतपंचमी, होली, बैसाखी के त्योहार प्रदेश के माहौल में रवानगी ले आते हैं. हरियाणा प्रदेश में होली का अलग ही महत्व है. विवाहित स्त्रियां अपने देवरों को कपड़े से बनाए गए कोड़ों से मारती हैं देवर खुद को बचते-बचाते हुए गाँव की भाभियों के ऊपर बाल्टी भर पानी उड़ेलते हैं. यहाँ पर होली को फाग के नाम से जाना जाता है. इस मस्ती भरे उत्सव में स्त्रियां गुनगुनाती हैं.
होली आई रे फूलां री जोड़ी झरमटियोले
ओ कोन खेले रे होली के फाग
किस बीरे के हाथ में मोतियां की माला
किस बीरा के हाथ में गुलाब की छड़ी
होली खेलों रे होली खेलों रे ऋतु फागुन की
ग्रीष्म ऋतु में सभी जन ओबरों से निकल कर आँगन में आ जाते हैं, मई से जुलाई के जेठ और आषाढ़ के इन तीन महीनों में देह से टप-टप बहता हुआ पसीना सिर्फ बीजणे( हाथ से झलने वाले पंखे) की मांग करता है क्योंकि दिन के समय गाँव में अधिकतर बिजली नदारद रहती है. तब स्त्रियां हाथपंखे से हवा देते हुए यह गीत गाती हैं,
‘मेरा नौ डांडी का बीजणा
मेरे ससुर ने दिया गढ़वा
झनाझन बाजे झनाझन बाजे बीजणा’
वर्षा ऋतु यानी सावन-भादों, वाले जुलाई से सितंबर के महीनों में बारिश की छमाछम से गाँव-गुहांड की प्यासी धरती का मन भीगते हुए प्रसन्न हो उठता है, पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं के साथ सभी ग्रामीण जन नाच उठते हैं.
इसी सीले-गीले मौसम में विवाहित स्त्री के मन के उमड़ रहे विरह के भाव भी गीतों में समाहित हो जाते हैं,
‘हे री सखी सावन मास घिरण लाग्यो
ननदी ऐसा खत लिखवा दो मेरे प्रीतम को बुलवा दो
भाभी मेरा बियर नहीं आवै वो तो पहुंचा जिला मुल्तान में
ननदी अपने बाबल ने खड़े मन्ने अपने घर घलवा दे’
सावन के महीने में ही रक्षाबंधन का त्त्योहार आता है, इन दिनों काफी उमस वाली गर्मी के साथ-साथ ज़ोरो से बारिश की फुहारें गिरने लगती हैं. ऐसे में मायके गई हुई युवती गाती है,
बादल उठया री सखी
मेरे सासरे की ओर
पानी बरसेगा सर तोड़
बादल उठया री सखी
मोटी- मोटी बूँद भाटभट
फूटण लग गए गोडे से
सावन मास में ही हरियाणा प्रदेश का प्रमुख उत्सव तीज आता है. इस मौसम में ग़ाँव के छोटे-बड़े पेड़ों पर झूले ही झूले दिखाई देते हैं.
प्रेम की भावना सावन में इन महीनों में अपने चरम पर होतीहै. स्त्रियां एकत्रित हो हंसती-गाती पींग बढाती हैं. सावन के महीने में पींग पर झूलती स्त्रियां मस्ती की लय पर सवार हो गाती- गुनगुनाती हैं तो समूचा ग्रामीण परिवेश प्रसन्न हो गुनगुनाने लगता है. वहीं गांव की अविवाहित लड़कियां अपनी माँ से मनुहार करती हैं कि वे उन्हें झूलने के लिए जाने दें. अपने अनुरोध को वे इस तरह लय में गाती हैं, .
झूलन जांगी ऐ मान मेरी बाग़ में री
आं री कोए संग सुहेली च्यार
झूलन जांगी ए मां मेरी बाग़ में री
झूलन जांगी ए मां मेरी बाग़ में री
कोए पंदरा की माँ मेरी कोए बीस में री
शादीशुदा महिलाएं मिलजुल आँगन में बैठ मेहंदी रचाती हैं, गाँव-कस्बों के हाट में जा कर रंग-बिरंगी चूड़ियाँ पहनती हैं और गाती हैं,
सासू तो बीरा चूले के आग ननद
भादों की बीजली
सौरा तो बीरा काला-सा नाग देवर साँप सपोलिया
राजा तो बीरा मेहंदी का पेड़ कदी रचै कदी न रचै
हरियाणा प्रदेश में अधिकतर लोग फौज की नौकरी पसंद करते हैं, दूर-दराज़ इलाकों में नियुक्त फौजी का अपनी पत्नी से मिलना लंबे अर्से के बाद ही हो पाता है, ऐसे में अपने पति से दूर विवाहिताएं अपनी पति के विरह में गाती हैं,
सामण का महीना मेघा रिमझिम रिमझिम बरसे
मन नै समझाऊं तो बी बैरी जोबन तरसै
तीजा के दिनां की तो थी आस बड़ी भारी
ऐसे में बी न आए मैं पड़ी दुखां की मारी
तीज के त्योहार में विवाहित स्त्रियां अपने मायके से कोथली आने का शिद्दत से इंतज़ार करते हुए जाती हैं,
आया तीजां का त्योहार
आज मेरा बीरा आवैगा
सामण में बादल छाए
सखियां नै झूले पाए
मैं कर लूं मौज बहार
आज मेरा बीरा आवैगा
भादो में गूगा का त्योहार भी मनाया जाता है, इस अवसर में गूगा पीर की पूजा-आराधना की जाती है. ग्रामीण इलाको में यह त्योहार काफी प्रसिद्ध है. भक्त मगन हो गाते हैं,
खाले बाजरे की रोटी गूगा पीर
की लाडू पेड़ा भूल जावेगा
बाजरे की रोटी बनी है कमाल की
चटनी पिसाई है मन्ने
शरद ऋतु यानी अश्विन और कार्तिका के मौसम में जब तापमान न जायदा गरम न होता है न सर्दी उतनी परेशान करती है तब दूध-दही-घी के प्रेमी इस प्रदेश में अलाव के सामने बैठ कर महिलाएं मिल बैठ कर अपने दुःख-सुख बाँटती हैं. इन दिनों चने और गुड़ का सेवन खूब होता है. कामकाज से निपटने के बाद स्त्रियां अपने मनोरंजन के लिए गीतों का सहारा लेती हैं और सास को छेड़ने वाले जकड़ी गीत गाती हैं,
ए म्हारा देवर भाभी का प्यार देवर मेरा सूट सिमावै सै
ए मैं ओढ़ पहैर पाणी जाँय देवर मेरा खड़्या लखावै सै
री भाभी हळुवें- हळुवें चाल सूंट कै गिरद चढ़ावै सै
ए मैं जल भर उल्टी आयँ देवर मेरा पलंग बिचावै सै
अश्विन और कार्तिक, सितंबर से नवंबर का महीना सात्विक माना जाता है. इन महीनों के धार्मिक वातावरण रहता है. कार्तिक के दिनों में ग्रामीण स्त्रियां मुँह-अँधेरे ही कुओं, नदी, तालाबों की ओर रुख करती हैं. अविवाहित युवतियां अच्छे वर की कामना करती हैं और विवाहित स्त्रियां अपने पति की सलामती की आराधना करती हैं,
गौतम नार सिला कर डारी
मुर्गा बांग दगे की दे गया, बांग दगे की न्यारी
गौतम ऋषि जी के न्हाने की तैयारी
हेमंत के मौसम में प्रकृति की सुंदरता बढ़ जाती है, सर्दी दबे पाँव समूचे संसार को अपनी गोद में लेने की तैयारी कर रही होती है. पूस की रात में ठंड बहुत बढ़ जाती है. इसी मौसम में दीपावली और पूर्णिमा का त्योहार आता है,
खुशियां की मनै दिवाळी
जगमग जैगै दिवाळी रै
खुशियां की मनै दिवाळी
शिशिर यानी पूस दिसंबर/ जनवरी के महीने में पोंगल, शिवरात्रि, संक्रांति का त्योहार आता है. इन दिनों मौसम थोड़ा ठंडा होता जाता है. पेड़ अपनी शाखाओं से पीले पड़ चुके पत्तों को अलग करने लगते है. इसी मौसम में पड़ने वाला संक्रांत का त्योहार हरियाणा में विशेष महत्व रखता है.
इस तरह गाँव की स्त्रियों के पास बारह महीनों में आने वाले मौसमों के स्वागत के लिए लोकगीतों का ख़ज़ाना है. जो कभी घटता नहीं बल्कि उसमें लगातार वृद्धि होती चली जाती हैं.गाँव की निरक्षर महिलाओं द्वारा तुरंत-फुरंत रचे- बुने ये गीत हमारी देसी मौखिक परंपरा का अटूट हिस्सा हैं. सारा दिन घर और खेतों में काम में जुटी महिलाओं के लिए ये गीत स्ट्रेस बस्टर का काम करते हैं. हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में अभी भी प्रकृति से लोगों का करीबी रिश्ता बना हुआ है. अब भी गाँव-देहात की स्त्रियां जब खुश होती हैं तो उनके मुख से वे गीत फूट पड़ते हैं जिनकी रचयिता वे खुद होती हैं. अक्षर-ज्ञान से विहीन ये स्त्रियां अपनी मुखरता के चलते जीवन के सभी उत्सवों में हंसी-खुशी से शरीक होती हैं और हर मौसम को अपने अलग अंदाज़ में जीती हैं.
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