नवरात्रि मनाने के इस अनूठे तरीके में हम, कवि और साहित्यकार अम्बर पांडेय के लिखे जा रहे अद्भुत उपन्यास माँमुनि की सात किश्तें पढ़ चुके हैं. इसी क्रम में आज अष्टमी के दिन यह आठवीं किश्त आपके सामने प्रस्तुत है…
अम्बर पांडेय/
जैसे जैसे दक्षिणेश्वर निकट आता जा रहा था शारदा का मन विचलित होने लगा। जहाँ पहुँचने के लिए असंख्य दुख झेले, मरते मरते बच रही, अब जब दक्षिणेश्वर का दूर से दिखते वाला एक शिखरकलश निकट आते आते एक से चार और चार से सात, सात से नौ दिखने लगे तब मन शरीर को खींच खींचकर वहीं बीच बाट बैठा लेना चाहता था
मन में मान ने घर कर लिया। ठाकुर ने न कभी अपना समाचार भेजा न किसी को अपनी स्त्री का समाचार लेने भेजा। वही प्रेम में दृष्टि खोकर निधड़क, निर्लज्ज दौड़ी चली आ रही है अपने स्वामी को देखने। ठाकुर के आगे कभी मान नहीं माना किन्तु लोकदिखावे को भी तो नारी को अपना मान ठानना पड़ता। ठाकुर की माँ चन्द्रामणिदेवी जिसे शारदा जननीमणि टेरती थी, क्या वह अचानक यों आ जाने का कारण न खोजेंगी! हृदयराम तो सभी को कहेगा, ‘मामी लज्जा कुचलकर इतनी दूर कुल की मर्यादा त्याग बिन निमंत्रण ठाकुर से मिलने चली आई।”
सन्ध्या गहरा गई थी। नदी दीपों से भरी जगमगा रही थी। पूर्णिमा का शशि उतना उज्जवल कहाँ दिखाई देता है जितना एक दिन पुराना काली पाँख की पड़वा का माघचन्द्र। कालीमन्दिर के कलश के ऊपर वही अकलंक माघचन्द्र आकर स्थिर ठहर गया जैसे ठाकुर और शारदा की भेंट बिलोकने रुका हो।
घाट पर मुखोपाध्याय जी और शारदा रुककर हाथपाँव धोने लगे। ढाकपत्रों में धरे दीपकों के मध्य उस संध्याकाल शारदा को प्रथम बार इच्छा हुई कि वह अपना मुख जल में देखे। यदि वह ठाकुर को किंचित भी मलिन दिखाई दी तो उससे बड़ा पाप शारदा के लिए नहीं था। इत्र-फुलेल, मुख हेरने को दर्पण, कंघा,
कज्जल शारदा के निकट सिंदूर की डिबिया को छोड़ कुछ भी न था। उसी का तिलक लगाकर वह मुखोपाध्याय जी के संग कालीमन्दिर जाने लगी। भीतर ढोल बजने का भीषण नाद हो रहा था।
शारदा मन्दिर के भीतर जा खड़ी हुई। काली के रात्रभोग से पूर्व की आरती हो रही है। भीतर पाँव धरने का स्थान न था। कालीमन्दिर के पुरोहित ठाकुर है ऐसा जानकर शारदा भीड़ में घुसकर आगे बढ़ती गई। मन्दिर की छत पर जलते रौशनदानों की ज्योति में उसका
सिंदूरतिलकित भाल ऐसा दैदीप्यमान था जैसे काली की अभयमुद्रा में उठी हथेली ज्योतिर्मय होती है। गर्भगृह के भीतर निष्कंटक घुसती शारदा को देखकर लोग चकित थे कुछ निंदा में ‘धिकधिक’ कहते थे। शारदा को मतिलोप हो गया था। उसकी दृष्टि केवल ठाकुरमयी हो जाना चाहती थी शेष संसार धूल मात्र से बँधी पोटली रह गया था उसके लिए।
भीतर हृदयराम के हाथ में कर्पूर और धूप देखकर उसने कसकर आँखें मूँद ली। भीतर सुनती थी कि काली उसे धिक्कार रही है, ‘जिस मण्डप में संसार मेरे दर्शन पाने दूर दूर से आता है वहाँ तू अपने स्वामी को ढूँढ रही है! लाज तो तू जयरामवाटी में त्याग आई, यहाँ आकर धर्म का भी परित्याग कर दिया। मेरे चरणों से मुरझाकर उतरे चम्पकपुष्पों का भी तेरे इच्छाओं से भरे मन से अधिक मोल है। काली के वचन कान पर न पड़े ऐसा सोच कान भी शारदा ने हाथों से बंद कर लिए।
हृदय ने जब कर्पूर और धूप भूमि पर धरे और पीछे पलटा तो देखता है शारदा मूर्च्छित भूमि पर पड़ी है और मुखोपाध्याय जी उसपर गंगा छिड़क रहे है। हृदयराम गर्भगृह से निकलकर उनकी ओर दौड़ा। मन्दिर में भगदड़ मच गई। ढोल बजने के कारण एक का दूसरे से कुछ कहना सुनना कठिन था।
“फूफा जी, मामी तो मूढ़मति है। ठाकुर के पीछे पगली है किन्तु आप तो सदबुद्धि है। आपको क्या आवश्यकता थी उन्हें यहाँ लाने की? क्या हमने निमंत्रण पठाया था?” हृदयराम ने मुखोपाध्याय जी से कहा
ऐसी कष्टसाध्य यात्रा, शारदा का रोग और मरनस्पर्श से बचकर रह जाना, ठाकुर की चिन्ता और अब शारदा के मन्दिर में यों मूर्च्छित हो जाने के कारण मुखोपाध्याय जी विमूढ़ हो गए थे। हृदय का अपमान उनके चित्त ही न चढ़ा। वह शारदा की ओर मुख किए उसे ही एकटक देखा किए।
निकट आने पर छवि ऐसी स्पष्ट हो गई जैसे दीपक जो दूर से केवल आलोक दिखाई देता है निकट आने पर उसकी लौ स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती है
कालीमण्डप के पीछे कोठरी में एक स्त्री अपना बायाँ उरोज उघाड़े एक युवक को स्तनपान करवा रही थी। शारदा प्रकृतिस्थ होकर उठ बैठी। अनिमेष वह भी स्तनपान कराती उस स्त्री को देख रही थी। अश्रु की धारा बँध गई किन्तु भीतर भाव सधा रहा। कोठरी में प्रकाश आने का कोई स्थान न था, गहन अंधकारे में आले में जलती डिबरी में उस स्त्री का नागचम्पा जैसा गौरवर्ण और गंगाजल जैसे शुद्ध नेत्र देखकर शारदा उसके चरणस्पर्श करने दौड़ी।
निकट आने पर छवि ऐसी स्पष्ट हो गई जैसे दीपक जो दूर से केवल आलोक दिखाई देता है निकट आने पर उसकी लौ स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती है। मस्तक कुंकुम से आरक्त, नयनों में दिया अंजन रोने के कारण सब ओर फैला हुआ था। केशों अगरू और जवा से सुगन्धित तो थे किन्तु बहुत दिनों से खुलकर फिर बँधे न होने के कारण जटा हो गए थे।
“यह क्या हो गया ठाकुर” शारदा के मुख से अनायास निकला। सुनकर मुखोपाध्याय जी भी दोनों के निकट आकर ठाकुर को ध्यान से देखने लगे।
“मामा को विरहोन्माद हुआ है” हृदयराम ने कहा।
“केष्टो, तू कब आया रे। राखाल बहुत भूखा था इसलिए उसे दूध पिला रही थी। तू रीस न कर मेरे दामोदर। देख तेरी सखी के उरोज कितने पुष्ट-सुन्दर है” यों कह ठाकुर ने धोती का आँचल अपने स्तनों से हटाकर शारदा को दिखलाया। गाँव की स्त्रियों की बात सत्य निकली। ठाकुर के सचमुच के सुन्दर स्तन शारदा को दिखाई पड़े।
सुडौल स्तन सचमुच पुष्ट, क्लिष्ट और दूध से भरे हुए थे। उन गोल स्तनों पर ठाकुर ने चंदन से निकुंजवन रचा था। बीच बीच में कस्तूरी की टिपकियों से पराग बनाया था। स्तनों के मध्य ठाकुर ने चमेलियों का माला पहन ली थी।
तभी अचानक किसी ने कोठरी का किवाड़ खोल दिया। काली के रसोईघर के महाराज प्रसाद की पत्तल लेकर आए थे। द्वार से आते अकलंक माघचन्द्र के आलोक में अवसन वक्षस्थलवाली श्रीराधासखी विराजमान थी। शारदा भगवान मुग्धदामोदर की भाँति उनकी देह से आसक्त राधा को देख रही थी। अनुराग अटपट अवस्था को प्राप्त न हो तो अनुराग केवल नाम का ही तो है। उस काल संसार के सब पुरुष स्त्री हो गए थे और शारदा ही मात्र पुरुष पुरुषोत्तम थी।
(क्रमशः जारी…)