चंदन पांडेय/
किसी आत्मीय के देहावसान के बाद उसके बारे में लिखना, उसकी अर्थी को काँधे उठाने जितना ही तकलीफदेह है। या उससे भी ज्यादा। मनोज पटेल के बारे में लिखते हुए ऐसा ही महसूस हो रहा है।
और लिखें भी तो क्या? मैत्री इसलिए तो कभी नहीं की जाती कि स्मृतियाँ बटोरी जाएँ। स्मृतियाँ तो छाप भर होती हैं, चाहे अनचाहे पड़ गई छापें। मनोज को लेकर स्मृतियाँ गझिन और जालीदार, दोनों, हैं। यह तो किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम एक दूसरे की स्मृतियाँ दर्ज करेंगे।
और स्मृतियाँ भी कैसी कैसी?
जब अम्मा को बताया तो वो उस मुलाकात को पहचान गई। नाम से नहीं। चेहरे से, कद-काठी से और उस दिन के भोजन से। मनोज अक्सर योजना बनाया करते थे कि एक बार फिर बनारस आना है, अम्मा के हाथ से बनी बेसन की सब्जी खाने के लिए आना है। यह उनका प्रेम जताने का तरीका भी हो सकता है और यह भी नहीं कि कभी मैंने अम्मा को बताया हो, मेरे कौन से मित्र उसे किस तरह याद करते हैं लेकिन आज जब तस्वीर दिखाई और मन-मस्तिष्क को झिझोड़ देने वाला वाकया सुनाया तो अम्मा पहचान गई, कहा, बाबू बड़ी नीमन से खईलें रहनअ। रोटी त दुईएगो खईलें रहनअ लेकिन सब्जी आ दाल खूब मन से खइनअ।
मेरी स्मृति में यह घटना इन दोनों की स्मृतियों की वजह से है, वरना मुझे जरा भी याद नहीं कि नौ-दस साल पहले हमने उस दिन क्या खाया था? लेकिन ये अम्मा का तरीका है। वो बनारस के बाहर वाले मेरे साथियों को ऐसी ही किसी एक बात से याद रख पाई है। राजीव कुमार को उनके गर्म पानी पीने की वजह से, मनोज पांडे को खूब बढ़िया से बतियाने की वजह से, सन्नी को पुआ खाने की वजह से, शेषनाथ, कविता, राकेश बिहारी, राकेश मिश्रा, प्रेमशंकर, मनोज कौशिक, सब उसको याद आ जाते हैं, बस एक बार तस्वीर दिख जाए। जो बनारसी साथी हैं, उनकी तो हमसे भी अधिक स्मृतियाँ अम्मा के पास है।
लेकिन मनोज पटेल से जुड़ी जिस दिन की बात मैं बता रहा हूँ, उसकी दूसरी वजह है। किताबों से कविताओं से मनोज का प्रेम। मैं हैदराबाद से छुट्टियों में आया हुआ था। मनोज भाई को मालूम था कि अपने पास येहूदा आमिखाई की ‘टाइम’ है। वो अकबरपुर से बनारस चले आये थे। यह उनदिनों की बात है, जब फ्लिपकार्ट/अमेजन आदि इस कदर लोकप्रिय और पहुँच में नहीं थे।
वो पूरा दिन भाई ने किताबों की फोटोकॉपी कराने में बिताया। फिर हम लोग हारमनी गए। केवल कविता की बातें, केवल कविता की बातें और केवल कविता की बातें। वो बंदा थकता नहीं था। काशीनाथजी से मिलने गए थे, कृष्णमोहनजी से मिलने गए थे।
मुझे हमेशा लगता रहा कि वो भी कविताएँ लिखना चाहते हैं। मैंने खूब चाहा कि वो भी लिखें। वो कहते थे, अरे महाराज, अनुवाद बड़ा काम है।
वो संकोची बहुत थे।
प्रसिद्ध कबाड़ी अशोक पांडे का बहुत आदर से जिक्र करते थे तो मैंने एक दिन उनका नम्बर दिया। बहुत दिनों बाद बातचीत में अशोक का जिक्र आया तो मैंने पूछा, कैसी रही थी आपकी बातचीत। कहने लगे थे, बात क्या किया जाए। मुझे अच्छी तरह याद है, अब कचोट भी रही है वो याद, कि मैंने बहुत उलाहने दिए थे।
संकोच का आलम यह था कि वो पत्रिकाओं, अखबारों को अपने अनुवाद भी नहीं भेज पाते थे। उन्हें यह सादा काम भी आत्मविज्ञापन जैसा लगता था। और उस संकोच को यह कह कर टालते थे कि अपना अनुवाद दो चार लोग पढ़ ले रहे हैं, यही बहुत है। हम लोगों के बीच जो एकाध मतभेद रहे उसमें एक उनका यह स्वभाव भी रहा।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण था, उन बाहरी कवियों से संपर्क करना, जिनकी कविताओं का अनुवाद वो कर रहे थे। बाद के दिनों में, कहना न होगा कि, विश्व कविता और कवियों की अद्यतन जानकारी में हम जैसों से बहुत आगे निकल गए थे। मीलों आगे। सबसे अच्छी बात यह थी कि जानकारी या सूचना छुपाते नहीं थे। वैसे तो वो इस बात का बहुत ध्यान रखते थे कि मैं कब कब और किन किन मौकों पर व्यस्त हो सकता हूँ लेकिन जैसे ही किसी नए ‘स्पार्क’ को, नए कवि को ढूँढते थे, तुरंत फोन करते थे। तीनेक साल पहले की बात है, एक दिन मेरा ‘अर्ध वार्षिक’ अप्रेजल चल रहा था तो मैंने फोन बंद कर रखा था। जब फोन ऑन किया तो पहला ही फोन उनका- भाई साहब, वर्शन शिर को पढ़िए।

मेरा मतभेद यही था कि इसी अंदाज में आप दुनिया को बताईये। कविता से पहले कवि का परिचय जरूर दीजिए और एक साथ कई कविताएँ लगाइये। लेकिन धीरे धीरे मुझ पर उनकी संतई खुली। वो वाक्यों और कविता को ही सोच पाते थे। कविता के अनुवाद पर कई कई दिन खर्च करने के बाद वो कवि के बारे में दो पंक्ति भी लिखना गैर-जरूरी समझते थे। कहते थे, जिसे कविता अच्छी लगेगी वो कवि के बारे में ढूँढ़ ही लेगा।
मुझे याद आता है और यह शायद मेरे या उनके ब्लॉग पर दर्ज भी होगा कि माया एंजोलू की कविता ‘स्टिल आई राईज’ में राईज शब्द का सटीक अनुवाद खोजने में बंदे ने सप्ताह खर्च डाले थे।
वैसे मैं उन तथाकथित कुलीनों का जिक्र नहीं करूँगा, जो मनोज के अनुवाद को भाषा की लाठी से और कुलीन चुप्पी से ढंक देना चाहते थे। अगर मनोज में रफ्तार न होती तो वो लोग शायद ऐसा करने में सफल भी हो जाते लेकिन मनोज ने जिस तेजी और अनुशासन से अनुवाद किया, उसमें सारी कानाफूसियाँ हवा हो गईं। दरसअल अनुवाद और पुनर्लेखन दो अलग अलग चीजें हैं, इसे हर आरामफर्मा को समझना चाहिए (था)। अनुवाद में अधिकतम कुलीनता उसे अनुवाद नहीं रहने देती, पुनर्लेखन में बदल देती है। कई दफे तो अनुवादक, वही कुलीन मारका, संपादक भी बन जाता है और खुदा न खास्ता अगर महमूद दरवेश तक की कविता का अनुवाद कर रहा हो तो उसका भी सम्पादन करने से नहीं चूकता।
मनोज अनुवाद करते थे।
हम लोग मनोज के संकोच की बात कर रहे थे।
पता नहीं ऐसा क्या था कि वो प्रोफेशनलिज्म को स्वार्थ समझने की भूल करते थे। किसी भी भाषा के कवि का किसी दूसरी भाषा में अनुवाद करना या तो निश्वार्थ सेवा का काम हो सकता है हद से हद यह एक प्रोफेशनल अप्रोच हो सकता है। मैं, पाठक इसे पता नहीं कैसे लेंगे लेकिन ईमानदारी से बता रहा हूँ कि मैं, प्रोफेशनल के पक्ष में उनसे हमेशा जिरह करता था। लेकिन उनका संकोच इस कदर हावी रहता था कि वो अनुवाद खुद करते थे, लेखक के एजेंट का पता खुद लगाते थे और उसकी ईमेल आईडी मुझे दे देते थे कि आप बात कर लीजिए।
मैंने हर मौके पर कहा, भईया आप इतना बड़ा काम कर रहे हैं, खुद संपर्क कीजिए, कवि/लेखक और उनके एजेंट बहुत खुश होंगे, लेकिन उन्होंने नहीं माना तो नहीं माना।
एक वाकया वो अपने पक्ष में अक्सर कोट करते थे। डेनियल मोईनुद्दीन से जुड़ा हुआ। यह एक गजब का कहानीकार है। इनकी कहानी का अनुवाद मनोज ने किया। लंबी कहानी थी। रफ्तार इतनी कि दो दिन में अनुवाद कर दिया था उन्होंने मुझसे कहा, चन्दनजी, अपना प्रकाशन होना चाहिए। मैंने भी तंज मारा कि एजेंट्स से बात तो कर नहीं पाते आप, किताब कैसे बेचेंगे। उन्होंने छूटते ही कहा, आप हैं न। मैंने शर्त रखी, डैनियल के एजेंट से आप बात कीजिए, अगर सकारात्मक बात हुई तो प्रकाशन पक्का। और हाय रे किस्मत कि उधर से कोई जवाब नहीं आया। कई दफा मेल करने के बाद भी। फिर उस कहानी को ब्लॉग पर प्रकाशित कर दिया था। और शायद किसी पत्रिका में भी। तब से वो कहने लगे कि वो तो अब एजेंट्स से कतई बात न करेंगे।
इन्हीं चक्करों में पामुक के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘दि ह्वाइट कैसल’ का अनुवाद रुका और रुका ही रह गया। मेरी दिली तमन्ना थी कि मनोज भाई उसे पूरा अनुदित करते। अपने भारत वर्ष के लिए बहुत कम किताबें उस कदर सटीक होंगी।
मनोज ने जितना अनुवाद कर लिया वो एक असम्भव सा काम है। उस पर कोई टिपण्णी संभव भी नहीं। फिर भी अगर मनोज के काम को समझने के लिए कुछ मील के पत्थर गाड़ने हों तो सबसे पहला नाम ‘अफजाल’ साहब का आएगा। अफजाल अहमद सैयद।
मनोज अनुवाद के कर्म को कितनी शिद्दत से करना चाहते थे, उसकी कुछ झलक अफजाल अहमद सैयद की कविताओं वाले उनके अनुवाद से मिल सकती है
मनोज अनुवाद के कर्म को कितनी शिद्दत से करना चाहते थे, उसकी कुछ झलक अफजाल अहमद सैयद की कविताओं वाले उनके अनुवाद से मिल सकती है। पाठकों को यह जानकर हैरत होगी कि अफजाल साहब की कविताओं को अनुवाद करने के लिए मनोज ने उर्दू सीखी। बाकायदा तालीम के अंदाज में।
मनोज चाहते थे कि अफजाल की सभी कविताएँ हिंदी में हों। उनकी चुनिंदा कविताओं वाली पुस्तिका पहल ने प्रकाशित जरूर की थी पर उसमें कविताएँ बेहद कम हैं। अंग्रेजी में जो उनकी किताब है, रोकोको एंड आदर पोयम्स, वो भी चुनी हुई कविताओं की किताब है। मनोज, अफजाल से इस कदर प्रभावित थे कि समग्र से कम पर मान ही नहीं रहे थे।
वह एक गजब का दौर था। एडवेंचरस।
बात आई कि उनकी समग्र कविताएँ मिलेंगी कैसे? भाई ने मुझे ही काम पर लगाया लेकिन यह कहते हुए लगाया कि चंदन बाबू आप किताब खोज दीजिए, उर्दू में हो तो उर्दू में ही खोज दीजिए, अनुवाद मैं करूँगा। किताब खोजते हुए भी मैं इस कदर आश्वस्त था कि मनोज उर्दू तो जानते नहीं हैं लेकिन अगर किसी की मदद से भी अनुवाद करवाएंगे तो बड़ी बात होगी।
उस किताब को खोजना अपने आप में एक कहानी है। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अर्जुमंद आरा को अगर याद हो तो याद के साथ उन्हें हंसी भी आएगी। वो पूरी बात कभी और लिखूँगा कि कैसे हमने एक सेमिनार में, जिसमें हम दोनों ने डैनियल मोईनुद्दीन से उनकी कहानियों के अनुवाद का आदेश लेने की योजना बनाई। एक बिजली मिस्त्री इधर उधर भाग दौड़ कर रहा था तभी डैनियल की उस कहानी की याद आई। डैनियल फिर हमारे बीच जिक्र का सबब बन रहे थे। मनोज का उस कहानी को सुन सुन कर हँसना याद है। एक सवा हफ्ते बाद एक लिंक आया, यह कहते हुए कि इसे देखिए। उसी कहानी का अनुवाद था।
रात डूबती जा रही है। जितना लिखना चाहता हूँ उसका दशांश भी नहीं लिख पा रहा। सुबह बंगलौर निकलना है। उससे भी अधिक यह कि स्मृतियाँ और नींद आपस में उलझ रही हैं। जितने अनुवाद, उतने उनके ‘पैशन’ के किस्से।
कभी भी कोई नया रचनाकार विश्वपटल पर उभर कर आता है तो मनोज भाई का ख्याल आ ही जाता है। अगर कैंसर ने उन्हें बक्श दिया होता तो कितना कुछ हमलोग अपनी हिंदी में पढ़ रहे होते।
और यह एक रात के नींद की कहानी भी तो नहीं। चन्द्रिका ने उनके अनुवाद की दो सम्भावित किताबों का प्रूफ देखा था, उसे आगे बढ़ाने का वक्त है।
अगर श्रद्धांजलियों में भी सच झूठ का खाँचा होता है तो वह शायद सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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मनोज जी का पहला अनुवाद पढ़ा था – बम का दायरा, कई बार पढ़ा और सोचने लगा कि ये इतना बेहतरीन काम कौन कर रहा है, इस अनुवाद का पोस्टर बनाया और फिर सोचा की उनसे बात करके उनको धन्यवाद कहूँगा और कभी मिला तो गले लग जाऊँगा।
खोजने लगा तो पता चला वो नहीं रहे, विमल से भी बात हुई उनके बारे में फिर। स्तब्ध रह गया!!!
आप और लिखे उनके बारे में, वरना मेरे लिए मुश्किल होगा यकीन करना कि ऐसा इंसान भी था हमारे बीच !
उनसे हुई अनगिनत मुलाकातों और बातों से जो बातें जेहन में उभरती है वे यही हैं कि आदमी को अपने पैशन के प्रति कितना ईमानदार होना चाहिए । और यह भी कि उसके भीतर मनुष्यता का पलड़ा कैसे साफ-साफ झुका रहना चाहिए ।
उन्हें याद करते हुए दिल मे हमेशा एक हूक सी उठती है कि यह कोई जाने की उम्र थी साथी ।