शिखा कौशिक/
एक समय ऐसा था कि शहर और गाँव में सामान्यतः गिद्धों को किसी जानवर के मरे हुए शव पर बड़ी संख्या में देखा जा सकता था. कहीं बिजली के खम्बे पर तो कभी पेड़ों पर इनका दिखना आम बात थी.
इनकी संख्या इतनी बड़ी थी कि पहले इनकी गिनती करने की जरुरत ही महसूस नहीं हुई. वर्ष 1991-92 में कुल 18 जंगलों में जब इनकी गिनती की गयी थी तो पाया गया था कि इनकी संख्या करीब चार करोड़ के आस-पास है.
लेकिन एक दशक आते-आते कहानी बदल गयी. इन गिद्धों की संख्या इतनी कम हो गयी कि लगने लगा कुछ प्रजातियाँ तो ख़त्म ही होने वाली हैं. इन गिद्धों की दो प्रजातियाँ (Gyps indicus और G tenuirostris) में से करीब 97 प्रतिशत ख़त्म हो गए थे और एक प्रजाति (G bengalensis) करीब 99 प्रतिशत तक विलुप्त हो गयी थी. यह सब 1992 से लेकर 2007 के बीच, महज पंद्रह साल में हुआ.
विशेषज्ञों का मानना है कि यह दुनिया में किसी भी पक्षी के सबसे तेज विलुप्त होने की कहानी है.
कुछ लोगों की नज़र में यह बात आई. उनको गिद्धों की संख्या कम होती दिखी. शोधकर्ता से लेकर ग्रामीण लोग, सबको लगने लगा कि अब गिद्ध नहीं दिखते हैं.
करोड़ों से घटकर इन गिद्धों की संख्या हज़ार में आ गयी. कोई गिद्ध प्रजाति 20,000 की संख्या में बची है वहीं कुछ की तो संख्या महज़ हज़ार बची है.
शोधकर्ताओं ने इन सारी वजहों पर दिमाग खपा के देख लिया लेकिन गिद्धों के गायब होने की गति समझ से परे थी.
वर्ष 2000 आते-आते इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर ने गिद्ध की तीन प्रजातियों को अति-विलुप्त होते पक्षी की श्रेणी में डाल दिया. माने ये कि गिद्ध की ये तीन प्रजातियाँ बस विलुप्त होने से सिर्फ एक कदम पीछे हैं.
लोग हैरान थे, कि आखिर गिद्ध गायब क्यों हो रहे हैं. इसका पता लगाना कोई आसान काम नहीं था. पक्षियों का गायब होना कई बातों पर निर्भर करता है जैसे कोई बिमारी, शिकार, उनके रहनवारी क्षेत्र के साथ छेड़छाड़ आदि.
शोधकर्ताओं ने इन सारी वजहों पर दिमाग खपा के देख लिया लेकिन गिद्धों के गायब होने की गति समझ से परे थी. खासकर दक्षिण एशिया में.
वैज्ञानिकों ने पहले पेस्टीसाइड्स को इसका दोषी माना. जैसे डीडीटी इत्यादि. क्योंकि इसके पहले इस कीटनाशक ने अमेरिका में चीलों की संख्या को काफी प्रभावित किया था. यह साठ के दशक की बात है.
पर इससे भी बात नहीं बनी और गिद्धों के गायब होने की गति पहेली बनी रही. कुछ लोगों ने कई अजीबो-गरीब तरह की वजहें भी गिनाईं, जैसे- विदेशी हाथ इत्यादि.
इस पहेली को समझने में बस एक दिक्कत नहीं थी. अव्वल तो जांच की सुविधा देश में नहीं थी दूसरे नौकरशाही का कछुआ चाल. मरे हुए गिद्धों को जांच के लिए विदेश भेजा जाता रहा.
लेकिन जहां चाह वहाँ राह. कई देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर आखिरकार उस कातिल वजह की पड़ताल कर ही ली जिसकी वजह से गिद्ध ख़त्म हो रहे थे. पाकिस्तान के मरे गिद्ध की पड़ताल से पता चला कि डायक्लोफेना नामक दवाई जो जानवरों को दी जा रही है उसी की वजह से गिद्ध मर रहे हैं.
इन जानवरों को इलाज के नाम पर इस दवा को खिलाया जाता था. जब ये जानवर मर जाते थे तो जाहिर सी बात है कि गिद्ध उनके शव के पास मांस खाने आते थे और जाने-अनजाने वे भी उस दवा को खा लेते थे.
यह डायक्लोफेना इंसानों के लिए बनाया गया था. बुखार और दर्द के जल्दी निवारक के तौर पर इस दवा का सेवन किया जाता था. धीरे-धीरे यह दवा पशुओं को भी दी जाने लगी. सस्ता होने की वजह से मवेशी मालिक इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल करने लगे. भारत जैसे देश में गिद्धों का भोजन इन्हीं जानवरों का मांस होता है जो ये गिद्ध इनके मरने के बाद खाते हैं.
विद्वानों का मानना है कि यह दवा भारत में पाए जाने वाले गिद्धों की नौ में से तीन प्रजातियों को बुरी तरह प्रभावित करता है.
इसकी जानकारी मिलने के बाद देश की सरकार ने कदम उठाया और अंततः इस विलुप्त होते जीव को बचाने में सफलता मिली. भारत ने 2006 में इस दवा को जानवरों को देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. पडोसी देश पकिस्तान और नेपाल ने भी जरुरी कदम उठाये क्योंकि वहाँ भी समस्या विकराल हो चुकी थी. और अब खुशखबरी यह है कि मानव जाति ने अपने हाथों एक पक्षी की एक पूरी की पूरी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा लिया. पिछले साल यानि 2017 में आये एक सर्वेक्षण जो कैंब्रिज जर्नल में प्रकाशित हुआ था, उसमें यह पता चला कि धीमी गति से सही पर गिद्धों की संख्या बढ़ रही है.