चंदन पांडेय/
सत्य व्यास के तीसरे उपन्यास ८४ को पढ़ते हुए बेसाख्ता ही ‘यान ओत्चेनासेक’ की ‘रोमियो, जूलियट और अन्धेरा’ याद आई. सनद रहे कि यह याद किसी प्रभाव के संदर्भ में नहीं थी बल्कि राष्ट्रों की संरचना में पिसते नागरिक एवं मनुष्यता के संदर्भ में थी. दोनों उपन्यासों के परस्पर याद हो आने पर बात होगी लेकिन पहले चौरासी की बात करते हैं.
शीर्षक से जाहिर होता यह उपन्यास वर्ष १९८४ के भारत को केंद्र में रखकर लिखा गया है. ’८४ के बारे में हमारा सामान्य ज्ञान इंदिरा गांधी की हत्या और दिल्ली के इर्द गिर्द हुए दंगों, जिसमें न जाने कितने भारतीय मारे गए, तक ही सीमित है. सामान्य ज्ञान का दूसरा पहलू भोपाल गैस कांड से भी सम्बंधित है जो कि उसी वर्ष हुआ था लेकिन वह भिन्न विषय है. सिख विरोधी दंगों और माहौल ने किस तरह पूरे भारत को अपनी जद में ले लिया था, इसकी कहानी यह उपन्यास कहता है.
मनु और ऋषि की प्रेम कहानी के कलेवर में बंधा यह उपन्यास बोकारो शहर की कहानी कहता है. इस शहर का चयन ही किसी रूपक से कम नहीं. अगर नेहरूवियन मॉडल नाम का कोई विचार है, जिसमें विज्ञान और सद्भाव पर जोर है तो बोकारो, भिलाई, राउरकेला आदि शहर भारत के उस विख्यात मॉडल की पहचान हैं. यह मॉडल अगर कोई ‘सोशल फेब्रिक’ है तो सन १९८४ इस फेब्रिक को चीर देने वाला वर्ष था. यह यों ही नहीं है कि उपन्यास के शुरुआती अध्याय में पात्र परिचय के दौरान बोकारो और १९८४ को पात्रों की तरह पेश किया गया है. हालांकि बोकारो, जो बतौर वाचक प्रस्तुत होता है, तुरंत ही खुद को वाचक के किरदार से हटा कर पाठकों और कहानी के बीच से खुद भी हट जाता है.
इन दोनों, बोकारो और चौरासी, के अलावा छाबडा साहब, उनकी बेटी मनु और ऋषि नामक युवक: ये तीन ही मुख्य चरित्र हैं. पंजाब की हवा में मची हलचलों का जिक्र यहाँ उन लोगों में डर का बायस बनता है जो मूलरूप से सिख हैं या पंजाबी हैं और व्यवसाय और नौकरी के सिलसिले में बोकारो आ बसे हैं. मसलन लाला जगतनारायण के बेटे रमेशचन्दर की ह्त्या जो मई या जून चौरासी में हुई थी की खबर पढ़कर सतविन्दर सैनी और छाबडा साहब के माथे पर जो बल पड़ते हैं वो तथ्य इसलिए भी मौजूं हैं ताकि जाना जा सके कि सिक्खों के विरुद्ध जो भी हुआ वह महज इंदिरा गांधी की ह्त्या से उपजी कोई प्रतिक्रिया थी. यह एक अनवरत प्रक्रिया थी जिससे देश के सुदूर कोनों में बैठा सिक्ख समुदाय प्रभावित हो रहा था, चिंतित हो रहा था.
‘जून के महीने में मगर ऋषि ने एक बड़ा बदलाव देखा था. उसने गौर किया था कि छाबडा साहब अब काफी गंभीर रहने लगे थे. वह उससे अब पंजाब पर ही बातें ज्यादा कर रहे थे. शायद इसलिए भी कि अपना दुःख बाँटने को उन्हें कोई दूसरा मिला अभी नहीं’
( चौरासी – ७१ )
यह गंभीरता और अकेलेपन का यह दुःख उपन्यास के पूरे पन्नों पर पसरा हुआ है.
कहानी में मोड़ इंदिरा गांधी की ह्त्या के बाद आता है. ऋषि छाबडा साहब के घर पर बतौर किरायेदार रहने लगा है और तभी दंगे छिड़ जाते हैं. उसके बाद यह उपन्यास किसी दस्तावेज की तरह सामने खुलता है.
ऋषि मजबूरन उस गैंग में शामिल होता है जो दंगाई है क्योंकि वो जानता है कि इस गैंग के निशाने पर छाबडा परिवार है. क्यों?
यही वो रग है, दुखती हुई, जहाँ से यह उपन्यास नागरिकता के समूचे विचार को चैलेन्ज करता है. यहीं से यह उपन्यास यान ओत्चेनासेक के उपन्यास से अलग होता है. उस उपन्यास, रोमियो जूलियट और अन्धेरा, में जहाँ यहूदी नायिका को शरण देने वाला जर्मन युवक ही उसकी रक्षा का प्रयत्न करता है, यानी एक पल के लिए घर को देश मान ले, महज एक पल के लिए, तो देखेंगे कि जिसका घर है वो शरणार्थी को बचाने का प्रयत्न कर रहा है.
इससे उलट ‘चौरासी’ में ऋषि बतौर किरायेदार है, यहाँ भी एक पल के लिए अगर मानना होगा तो किरायेदार को शरण लेने की उपमा दी जा सकती है. ऐसे में किराएदार पर उनको बचाने का, हत्यारों से छुपाने की जिम्मेदारी आती है जो मालिक मकान हैं, जिनका घर है. अब सोचिए! सामाजिक विकास ने क्या यही दुर्व्यवहार हर उस सभ्यता के नहीं किया है जो उस जमीन की पैदाईश थे.
इस बिंदु तक आकर यह उपन्यास जकड़ लेता है.
आज इक्क्त्तीस अक्टूबर है और इंदिरा गांधी की ह्त्या के बाद मौत का जैसा नंगा नाच हत्यारों ने पूरे भारत में खेला था वह हमारे अतीत पर धब्बा हैं. उन हत्यारों ने अपनी लाइन बदल ली, लोगों की लाशों से गुजरते हुए दूसरी पार्टियों में चले गए, लेकिन वह नासूर ज़िंदा है, रिस रहा है.
उससे मोहलत नहीं मिलने वाली.
सत्य व्यास का यह तीसरा उपन्यास अच्छा बन पडा है. प्रचलित चीजों को अपने उपन्यासों में शामिल करने का लोभ अगर संवरण कर लिया तो भविष्य में सत्य निसंदेह हिन्दी के बेहतरीन रचनाकार साबित होंगे.