श्रीकांत दुबे/
सत्य के तौर पर हमारे ज़हन में न जाने कितनी ऐसी बातें भरी होती हैं जो अपने मूल रूप में धारणाएं होती हैं, लेकिन चूंकि हम अपने स्वयं से लेकर आस-पड़ोस के परिवेश में सभी को उन्हें लेकर एकमत पाते हैं, इसलिए वह बातें हमारे भीतर महज़ धारणा की बजाय एक सत्य की तरह बैठी होती हैं। ध्यान रहे, कि मेरा यह कहना उन धारणाओं के ‘सत्य’ होने का पूर्णत: प्रतिकार न होकर उनके कुछ और भी हो सकने की संभावना के लिए जगह छोड़ना भी है। ऐसी सचाइयों उर्फ धारणाओं में से बहुलांश तो बाकायदा एक से दूसरी पीढ़ी तक जस की तस स्थानांतरित होते हुए बिनानी सीमेंट के इश्तहार की इबारत, ‘सदियों के लिए…’ जैसी हो जाती हैं। हमारे अंदर घर की हुई ऐसी ही धारणाओं का एक बड़ा ठिकाना पुलिसिया महकमा है। इस महकमे की बात छिड़ने पर वहां मौजूद लोगों में से कुछ के पास सुनाने के लिए इस महकमे से वास्ता पड़ने को लेकर कोई कटु अनुभव होता है और बाकियों के पास, बिना किसी पुख्ता आधार के भी, ढेर सारी हिकारत और तिरस्कार। यकीनन, इसका कारण इस महकमे का किसी खास तरह का इतिहास भी होगा ही। लेकिन समाज या फिर उसके भीतर का कोई भी निकाय पारस्परिक विरोधाभासों के संतुलन के बूते ही जीवित रहता है। सरल भाषा में कहें, तो हरेक समाज में अच्छाइयां और बुराइयां दाल में नमक और हल्दी की तरह मिली होती हैं। पुलिस महकमा भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है। लेखक अमित श्रीवास्तव का पहला ही उपन्यास ‘गहन है यह अंधकारा’ अपने पूरेपन में इस एक बात को ही सशक्त तरीके से दर्शाता है।
उपन्यास का कथानक एक हत्या की तफ्तीश है, जो कि उपन्यास के लिए कोई नया विषय तो बिलकुल नहीं है लेकिन कथानक के साथ अमित श्रीवास्तव का ट्रीटमेंट सर्वथा अभिनव है, जो इसे एक ‘मर्डर मिस्ट्री’ वाला नॉवेल मात्र कहे जाने से बचा ले जाता है। पहला ही उपन्यास होने के बावजूद इसमें लेखक का किसी स्थापना की हड़बड़ी में न होना अलग से सराहनीय है।
उपन्यास की शुरुआत एक सिर कटी अधजली लाश के मिलने से होती है, जिसके बारे में जल्द ही स्पष्ट हो जाता है कि वह एक हत्या है। फिर उससे जुड़ी छानबीन के सिलसिले में उठा पटक शुरू होती है। जाहिर तौर पर, ‘हत्या किसने की’ वाली बात से परदा उपन्यास के अंत में उठता है, लेकिन उससे पहले पुलिसिया तंत्र की सबसे निचले पायदान पर खड़े कर्मचारी से लेकर शीर्षस्थ अधिकारियों की कार्य-शैली और संबंधित परिस्थितियों से साक्षात्कार होता रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं, कि लेखक के पुलिस महकमे से ही बावस्ता होने ने ही उसे विभाग की कार्य-प्रणाली से जुड़ी इन बारीकियों को हमारे सामने रख पाने में उसे सक्षम बनाया है, लेकिन वर्णन करते हुए लेखक पूरी तरह से निरपेक्ष भी हो जाता है। वर्णन के दौरान न तो वह विभाग की छवि को किसी अतिरिक्त आग्रह के साथ खंडित करने का प्रयत्न करता है न ही उसके किसी पहलू का अनावश्यक महिमा मंडन करता है। तफसील, जोकि हत्या की तफ्तीश के क्रम में आता है, के दौरान सामने आने वाला विभाग का हरेक कर्मचारी एक अहम किरदार साबित होता है, प्राय: जिससे जुड़ा कोई प्रसंग सामने आता है या फिर एक पूरा का पूरा किस्सा भी। यह प्रसंग और किस्से तफ्तीश से तो सीधे नहीं जुड़ते लेकिन ‘डीटेलिंग’ को समृद्ध कर उपन्यास को और अधिक पठनीय बना देते हैं। इन किरदारों से जुड़ते प्रसंग/किस्सों में बरती जाने वाली चुटीली भाषा उपन्यास को इतना रोचक बना देती है कि पूरी किताब एक बैठक में ही पढ़ लिए जाने की मांग करता है, देखें- पाला और डकैती में केवल इतना फर्क है कि एक पड़ता है दूसरी पड़ती है। यूँ जल्द ही पूरा पढ़ लिए जाने के बाद, जैसा कि प्रवाहमय और पठनीय किताबों के मामले में लगभग हर बार ही होता है, पाठक ‘ये दिल मांगे मोर’ वाले मोड में पहुंच जाता है।
अमित उपन्यास की ओर रुख करने से पहले एक समर्थ कवि भी हैं। ढेर सारे प्रश्नों और विद्रूप के उद्घाटन के कवि। यूँ ‘प्रश्नों’ और ‘विद्रूप के उद्घाटन’ जैसी विशेषताएं कवि तक कवि के ‘व्यक्ति’ के माध्यम से ही पहुंची होंगी। वही व्यक्ति यदि उपन्यास संभव कर रहा है, तो इनका वहां पर आना भी लाजिमी है। लेकिन इस जगह पर अमित एक कदम आगे तक जाते हैं। वे स्पष्ट रूप से कोई प्रश्न पूछने की बजाय उसका उत्तर देने वाली परिस्थितियों की ब्यौरा भी देते हैं। कवि के ‘विद्रूप के उद्घाटन’ वाला हिस्सा अक्सरहा उपन्यास में कटाक्ष के रूप में सामने आता है। उदाहरण, तमाम समवर्ती अपराधों के बावजूद पुलिस आज भी एक राज्य सूची का विषय है। तथा ‘इनके बजट में हनक, इकबाल, जबरदस्ती जैसे मेजर हेड एवं नजराना, शुक्राना और जबराना जेसे माइनर हेड होंगे।’ कहना न होगा कि यहां लेखक का ‘कवि’ रूप हावी है। लेकिन विशुद्ध उपन्यासकार के तौर पर भी वे इस काम में पीछे नहीं रहते हैं। लिहाजा विद्रूप का अभिधात्मक उद्घाटन भी, बाज़ दफा, आ ही जाता है और विवरण की खूबसूरती को बढ़ाता है, जैसे ‘‘हार्इवे गांवों में विकास लेकर आता है और थानों में मलबा। पूरा अहाता यहाँ मालखाने में तब्दील हो चुका था। सैकड़ों टूटे-फूटे एक्सीडेंटल दुपहिया, तिपहिया, चारपहिया और अपहिया वाहन रोते-बिलखते अपनी कि़स्मत को कोसते वहां बिखरे पड़े थे।’’
जबकि आम तौर पर किसी नौकरी या पेशे से लंबे समय से जुडे़ रहते हुए एकरसता, ऊब या फिर कतिपय उत्साह के चलते हम या तो उसे ‘बहुत बुरा’ या फिर ‘बहुत अच्छा’ मानते हुए ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ के एक ध्रुव पर रखने लगते हैं। कथा आधारित रचनात्मक विधाओं (उपन्यास, कहानियां, नाटक अथवा फिल्मों आदि) में, ऐसे में, कुछ चरित्र स्पष्ट तौर पर अच्छे तो कुछ वैसे ही स्पष्ट रूप से बुरे दिखा दिए जाते हैं तथा प्राय: उनके वैसा करने या हो जाने से जुड़ी परिस्थितियों तक जाने की जहमत ही नहीं उठाई जाती। मेरी राय में ऐसी कृतियां अपने आप में कमज़ोर होती हैं। अमित श्रीवास्तव इस लिहाज से भी कोई चूक नहीं करते और ‘हत्या’ जैसे अपराध को आधार बनाकर उपन्यास संभव कर देने के बावजूद उनके गढ़े चरित्रों में से कोई स्पष्ट रूप से ‘खलनायक’ की तरह सामने नहीं आता। आप जो कुछ भी करते हैं अथवा जैसे भी होते हैं, आपके वैसा करने अथवा होने के पीछे कोई न कोई परिस्थिति जिम्मेदार होती है। अमित श्रीवास्तव अपने पात्रों के उस ‘होने’ के पीछे की ‘परिस्थिति’ तक भी जरूर जाते हैं।
अंत तक पहुंचते हुए उपन्यास हमारे समाज के लगभग हरेक हिस्से में नासूर की तरह उपस्थित, लैंगिक भेद-भाव के आधार पर होने वाले शोषण के उद्घाटन तक पहुंच जाता है, कहीं न कहीं हत्या का कारण भी वही है। लेकिन हत्या अपने आप में एक अपराध है, जिसके अंजाम दिए जाने के बाद न्यायिक प्रक्रिया और फिर सज़ा आदि के प्रावधान हैं ही और जायज भी हैं, इसीलिए लेखक उनकी स्थिति को छेड़े बिना ‘कहने’ का अपना काम पूरा कर देता है।
अमित के पास विलक्षण भाषा है तथा उसे बरतने का अपार धैर्य भी है, जो ‘नई हिंदी’ की ‘हड़बड़ी वाली गड़बड़ हिंदी’ के समय में विरल है तथा उसकी साधना दुष्कर भी। साज-सज्जा के आधिक्य के बीच जिस तरह से ‘सादगी’ की महत्ता है, कुछ इसी शिल्प में मैं अमित श्रीवास्तव के उपन्यास ‘गहन है यह अंधकारा’ का इस्तकबाल करता हूँ और इसके लिए उन्हें बधाई तथा ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूँ।
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श्रीकांत महीन संवेदनाओं की तीक्ष्ण अभिव्यक्ति के कवि और कहानीकार हैं. अपने कथा संग्रह ‘पूर्वज’ की कहानियों में श्रीकांत स्थितिजन्य दु:खों और दुविधाओं पर अन्वेषण करते दीखते हैं. साथ ही, श्रीकांत ने अनुवाद के बहुतेरे महती कार्य किये हैं, जिनमें लोर्का, निकानोर पार्रा और नेरुदा की कविताओं के साथ चेखव और वर्गास योसा की कहानियों के अनुवाद है. इन्होंने रोबर्तो बोलान्यो और साथियों द्वारा चलाए गए साहित्य आन्दोलन परायथार्थ ( इन्फ्रारियालिज्म) के घोषणापत्र का भी अनुवाद किया है. मैक्सिको प्रवास की स्मृतियों पर लिखी इनकी पुस्तक ‘मेक्सिको: एक घर परदेश में ‘ प्रकाशित है.