दीपशिखा सिंह/
लोकतंत्र के चौथे पाए के तौर पर मीडिया में भरोसा रखने वाला और अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी और तटस्थता को इसके लिए सबसे जरूरी समझने वाला कोई भी पत्रकार आखिर कब तक खामोश रह सकता है! ‘गुजरात फाइल्स’ जैसी किताब ने न केवल इस ख़ामोशी को तोड़ा है बल्कि एक लिखित साक्ष्य के तौर पर खुल्लमखुल्ला चलने वाले राजनीतिक कारोबार पर हमेशा-हमेशा के लिए एक चींखता हुआ सवाल भी खड़ा किया है. हालाँकि राणा अय्यूब के आठ महीने तक पहचान बदल कर और जान जोखिम में डाल कर की गई इस तरह की रिपोर्टिंग को राजनीतिक दबाव के चलते खुद तहलका ने बहुत हद तक दबा दिया. इतना ही नहीं सबसे ताकतवर व्यक्ति के तौर पर उभरने की प्रक्रिया ने ही तमाम न्यूज एजेंसीज पर इस कदर अपना डर और रुतबा साया किया कि कुछेक मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को छोड़कर बाकी सब सत्ता के चारण की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं. इसलिए ‘गुजरात फ़ाइल्स’ जैसी किताब न केवल घृणा की राजनीति करने वाले लोगों को बेनकाब करती है बल्कि लोकतंत्र के तमाम दूसरी संस्थाओं के वास्तविक चरित्र को भी सामने लाती है.

‘गुजरात फ़ाइल्स’ सिर्फ सत्ता की निरंकुशता का ही दस्तावेज नहीं है बल्कि लोकतंत्र का दम घोंटने की पूरी प्रक्रिया का दस्तावेज है. नवउदारीकरण के बाद पूंजी और धर्म के गठजोड़ ने जिस तरह राजनीति को एक कारोबार के रूप में बदला, राजनीति का अपराधीकरण किया गया, व्यापक राजनीतिक मूल्यों को व्यक्तिगत स्वार्थों से रिप्लेस किया गया और जिस तरह जनवादी राजनीति के हर रूप के खिलाफ साजिशन आम जनता के सामान्य बोध को बदला गया, यह किताब इस तरह की हर प्रक्रिया के परिणाम को अपने भीतर समेटे हुए है. वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा आम जनमानस को अपने अनुकूल तैयार करने की चाह किस कदर अमानवीय हो सकती है और उसे किस तरह धर्म और संस्कृति के रंग में रंगा जा सकता है यह चंद नौकरशाहों और राजनीतिक तौर पर सक्रिय व्यक्तियों की बातों से ही स्पष्ट हो जाता है, जिसे राणा अय्यूब ने लगभग आठ महीने तक की अपनी पड़ताल में दर्ज किया है.
सत्ता तमाम संस्थाओं को हमेशा ही अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश करती है लेकिन जब ये संस्थाएं खुद सत्ता से वफादारी निभाते हुए अपने किसी न किसी व्यक्तिगत स्वार्थ को साधने के लिए आम जनता के साथ छद्म रचती हैं तब वास्तव में लोकतंत्र कराहता हुआ नजर आता है. जिसे पूरी दुनिया में गुजरात का विकास मॉडल कहकर पेश किया जा रहा है वास्तव में वह एक घायल लोकतंत्र की कराह है जिसके जख्मों को ‘गुजरात फ़ाइल्स’ में राणा अय्यूब ने परत दर परत खोलने की कोशिश की है. वर्चस्ववाद और घृणा की राजनीति का संस्कृतिकरण जिस तरह गुजरात में किया गया आज उसे गुजरात मॉडल के नाम पर कमोबेश पूरे देश में फैलाने का चक्र चल रहा है. जिस तरह का राजनीतिक एजेंडा लेकर सत्तासीन दल ने चुनाव लड़ा था आज उसका सच सामने है. वर्तमान परिस्थिति में आम जन-सुविधाओं की तो बात ही करना बेमानी लगने लगा है जब तमाम तरह के धार्मिक और साम्प्रदायिक उन्मादों, झूठ और अफवाहों में घिरे हुए हम एक अघोषित आपातकाल में जीने को विवश हैं. जिस तरह बड़े पैमाने पर अत्याधुनिक तकनिकी और बेरोजगार मस्तिष्क का इस्तेमाल एक क्रूर और बेशर्म जनमानस तैयार करने के लिए किया जा रहा है, देश और राष्ट्र को एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित किया जा रहा है, राष्ट्रभक्ति का मानक व्यक्ति-पूजा को बनाया जा रहा है, इतिहास और राष्ट्रीय धरोहरों से छेड़छाड़ की जा रही है इन सबकी पृष्ठभूमि ‘गुजरात फ़ाइल्स’ में देखी जा सकती है.
किस तरह से दंगों का इस्तेमाल वोट बैंक सुरक्षित करने के लिए किया गया और किया जा रहा है, छवि निर्मिति के लिए फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला चलाया गया पूरे स्टेट की नौकरशाही को एक व्यक्ति के इशारे पर नचाया गया और उसमें भी किस कदर वर्ण और जाति व्यवस्था के पदानुक्रम का पालन किया गया, खिलाफ जाने वाले अफसरों के साथ दुर्व्यवहार किया गया यह सब ‘गुजरात फ़ाइल्स’ के एक-एक पन्ने पर दर्ज है.
इस किताब में सत्ता में बने रहने के लिए समाज में क्रूरता फैलाने वाले खुले खेल के छुपी हुई चालों का बतौर मोहरे इस्तेमाल किये गये लोगों से ही परदाफ़ाश करवाया गया है. इस किताब का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है पत्रकार की तटस्थता और उसके साथ ही मनुष्य के भीतर उठने वाले द्वंद्व से गुजरते हुए सच के साथ खड़ा होने का साहस. चाहे गिरीश सिंघल के प्रति उपजी सहानुभूति हो या व्यक्तिगत उदारता के बावजूद अशोक नारायण और चक्रवर्ती जैसे अधिकारियों की ख़ामोशी और प्रतिबद्धता न दिखाने पर उठने वाले सवाल जो व्यक्ति राणा अय्यूब को लगातार झकझोरते रहे हैं या फिर जागृतिबेन का मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वग्रह इन सबसे एक व्यक्ति के तौर पर खुद को बाहर निकालना वास्तव में सच के साथ एक और कदम आगे बढ़ने जैसा है. किताब की भूमिका में राणा की आत्मस्वीकृति इस मायने में गौरतलब है “एक अच्छे पत्रकार को किसी खबर से खुद को अलग करने और व्यवहारिक बनने की कला सीखनी चाहिए. मुझे अफ़सोस है कि आज तक मुझे इस कला में महारत हासिल नहीं हो पाई. खास तौर पर इसलिए कि अकसर इसे कारपोरेट व राजनीतिक ताकतों के दबाव में किसी खबर की हत्या करने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.”
तटस्थता के नाम पर हिंसक गतिविधियों पर चुप्पी साधे रहना वास्तव में सत्ता पक्ष से मुद्दों को व्याख्यायित करना है. ऐसी व्यवहारिकता भी कहीं न कहीं कारपोरेट फांसीवाद के उभार में सहायक हो रही है. रूस की प्रसिद्ध पत्रकार ‘अन्ना पोलित्कोव्स्काया’ जिनकी चेचेन नेता कैदिरोव और पुतिन सरकार के गठजोड़ और उनकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ लिखने के कारण 2006 में हत्या कर दी गई थी, के अनुसार “चुप रहकर, तथ्यों को छुपाकर दरअसल हम उसी दमनकारी षड्यंत्र का हिस्सा बनते हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ हैं. इसलिए पत्रकार का पहला और आखिरी दायित्व है कि वो सच को सामने लाये.” हमें ख़ुशी है कि राणा अय्यूब के रूप में भारतीय लोकतंत्र के पास अन्ना पोलित्कोव्स्काया जैसी एक पत्रकार तो है लेकिन अफसोस कि प्रिंट मीडिया में ‘नोवाया गैजेता’ जैसे अख़बार और प्रकाशन संस्थाएं न तो हम बना पा रहे हैं और न ही बचा पा रहे हैं.
प्रस्तुत टिप्पणी समकालीन जनमत के नवम्बर अंक में पूर्व प्रकाशित है.
(काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर दीपशिखा सिंह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत हैं.)