यतीन्द्र मिश्र/
(यतीन्द्र मिश्र कवि हैं. आपने लता मंगेशकर पर ‘लता: सुर-गाथा’ के नाम से एक पुस्तक लिखी है जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. आज सुर सम्राज्ञी के जन्मदिन के अवसर पर उसी पुस्तक का एक अंश. लेखक और इस पुस्तक को इस वर्ष फिल्म लेखन के लिए राष्ट्रीय सम्मान ‘स्वर्ण कमल’ से नवाजा गया है.)
संगीतकार जयदेव की शिल्प-शाला की सबसे नायाब बानगी अगर किसी गीत में देखनी है, तो वह पं. नरेन्द्र शर्मा द्वारा लिखे हुए ‘जो समर में हो गये अमर, मैं उनकी याद में, गा रही हूँ आज श्रद्धा गीत धन्यवाद में’ को मानना चाहिए। यह कम्पोज़ीशन अपनी महान धुन और लता जी की बेजोड़ गायिकी के चलते देशप्रेम के गीतों में सर्वोपरि गीतों में अपना स्थान रखता है। इस गीत के शब्दों में उतरी भावों की सजल मार्मिकता को उसी अनुपात में गायिकी के स्तर पर भी मार्मिक बनाने का अद्भुत काम लता मंगेशकर बड़ी सहजता से कर डालती हैं।
यह गीत अपने सुने जाने पर कई स्तरों पर जाकर अपनी गम्भीर अर्थ-छाया को खोलता ही नहीं, बल्कि उसे अपने मर्मदर्शी अर्थ-अभिप्राय से कुछ अलग ही बना डालता है। जयदेव जैसे संगीतकार भी इस काम में बड़े सार्थक ढंग से अपनी शास्त्रीय अभिव्यक्ति को लोक-व्याप्ति के सन्दर्भ में कुछ अधिक तरल बनाते हैं। यह अकारण नहीं है कि इस गीत में लता जी के स्वरों का जल बड़े गरिमामय ढंग से बहता हुआ दिखाई देता है। गीत के अन्तरे में आने वाली इस पंक्ति पर ‘लौटकर न आयेंगे विजय दिलाने वाले वीर/मेरी गीत अंजुलि में उनके लिए नयन नीर’ में जैसे पूरे भारत के लोगों के आँसू उतर आते हैं।
लता जी को नाटकीयता पसन्द नहीं है और फ़िल्म के सन्दर्भ में आने वाले दुःख-भरे गीतों को नाटकीय अन्दाज़ में बरतना उन्हें सुहाता नहीं। ऐसे गीतों के दुःख को उभारने में वे जिस ढंग का अन्दाज़ चुनती हैं, उसमें मानवीय भावनाओं को उसके सबसे शुद्धतम रूप में दर्शाना ही फ़िर उनका सबसे आजमाया नुस्खा बन जाता है। शायद इसीलिए देश के ऊपर मर मिटने वाले जवानों और शहीदों के सात्त्विक आत्मोत्सर्ग का मर्म पढ़ते हुए वे एक तरह से सदियों पुरानी नदियों का दुःख बटोर लाती हैं और आम-जीवन के भावनाओं की सूख चुकी नदियों में उसे अटाटूट भर देती हैं।
जयदेव और पं. नरेन्द्र शर्मा की इस स्तरीय कम्पोजीशन के बहाने लता मंगेशकर के लिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने जवानों और वीरों के अन्तस में उतरकर उस न लौट आने के दर्द का चेहरा उजागर किया है, जो ऐसे नायकों के घरों और गाँवों में खेतों व मेड़ों पर छूट गया है। छोटी बहनों के राखी के प्रेम और माँ के दुलार में छूट गया है। प्रेयसी और पत्नी की खनक और उत्साह में छूट गया है… और पिता की आँखों में पथरा गये सपनों में कहीं छूट गया है। इतने सारे मार्मिक और मर्मान्तक पीड़ा देने वाले क्षणों को जैसे एक साथ कहीं हृदय के भीतर गूँथते हुए लता मंगेशकर उसकी वेदना को गाते हुए रच डालती हैं। इसी कारण यह श्रद्धा-गीत, धन्यवाद का गीत बन जाता है, जो दुःख के अनन्तिम छोर पर जाकर भी प्रेरणादायक लगता है।