रजनीश जे जैन/

कुछ बहुत ही अच्छी और कालजयी श्रेणी की फिल्मे बना चुके हॉलीवुड निर्माता निर्देशक रोबर्ट ज़ेमेकिस ने 1994 में ‘फारेस्ट गंप’ नाम का एक ऐसा मासूम और भोला भाला किरदार दिया था जो हर परिस्तिथि में खुद को ढाल लेता है। निराशा, हताशा और भावनात्मक टूटन में वह जिस तरह खुद को संभालता है, वह प्रेरणा दायी है। परदे पर टॉम हेंक ने इस किरदार को जीवंत किया था जिसके लिए उन्हें ऑस्कर से नवाजा गया था।
चालीस से अधिक हिंदी फिल्मों और साठ के करीब टीवी धारावाहिको के जरिये अपनी अलग पहचान बना चुके पंकज को बॉलीवुड का फारेस्ट गंप कहा जाए तो गलत नहीं होगा। बिहार के ठेठ ग्रामीण परिवेश से फिल्म जगत तक पहुंचे हिंदी भाषी पंकज का संघर्ष आसमान छूने की चाहत रखने वाले युवाओ लिए प्रेरणा बन सकता है। ‘जहाँ नदी पर पुल नहीं होता वहां के लोग तैरना सीख जाते है,’ एक इंटरव्यू के दौरान पंकज त्रिपाठी के मुँह से अनजाने में निकला यह वाक्य उनके चौदह बरस लम्बे प्रयासों की सफलता की कहानी बयां कर देता है।
अभिनेता बनने के लिए वे किन किन रास्तो से होकर गुजरे है – एक बॉलीवुड फिल्म की तरह उसमें वह सब कुछ शामिल है जो किसी फिल्म को सफल बनाने के लिए जरुरी है। ड्रामा है, सपने हैं, उम्मीदे हैं और निराशा भी है। पंकज इन सभी भावों को आत्मसात करते हुए सफलता के इस पड़ाव पर भी विनम्र बने हुए है।
पटना में पढ़ाई के दौरान थिएटर करना और उसमे लगभग डूब जाना फिर किसी रिश्तेदार के कहने पर फाइव स्टार होटल में शेफ बन जाना उनके सफर के एक पड़ाव भर रहे है। ध्यान से देखा जाये तो भविष्य कई रूपकों में वर्तमान में ही नजर आने लगता है। पटना मौर्य शेरेटन में डिशेस बनाते हुए इस अभिनेता ने मसालों के सही कॉम्बिनेशन के महत्त्व को समझा था। यही सीख उन्हें अपने चरित्र को निभाते हुए परफेक्शन हासिल करने में मददगार साबित हुई।
एक अभिनेता अपने क्राफ्ट में लगातार सुधार करते हुए उस लेवल पर पहुँच जाता जहाँ उसका अपना वजूद ख़त्म हो जाता है और किरदार जीवित हो उठता है। पंकज के निभाए अधिकांश किरदार इसी श्रेणी के है। भले ही किसी फिल्म में वे चार मिनिट के लिए आये हो परन्तु दर्शकों को याद रह जाते है। फिल्म ‘मसान’ में रेलवे बुकिंग क्लर्क की भूमिका का कहानी से कोई सरोकार नहीं था। परन्तु पंकज ने मात्र संवाद अदायगी से उस किरदार को अमर कर दिया। ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ उनके अभिनय करियर का सुखद मोड़ बनकर आई थी यह तथ्य दिन के उजाले की तरह स्पस्ट है।
पंकज यही नहीं रुकते वे हर नयी फिल्म में खुद को निखारते हुए नए किरदार में प्राण फूंकते नजर आ जाते है। ‘न्यूटन’ (असिस्टेंट कमांडेंट आत्मा राम), ‘फुकरे’ और ‘फुकरे रीटर्न ‘ (पंडित जी), ‘गुडगाँव’ ( केहरी सिंह), ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ (रंगीला), ‘बरेली की बर्फी’ (बिट्टी के पिता नरोत्तम मिश्रा), ‘निल बटे सन्नाटा’ (प्रिंसिपल और मेथ्स टीचर), ‘स्त्री’ (रूद्र भैय्या) आदि कुछ ऐसी फिल्मे है जो उनके बगैर भी बन सकती थी। परन्तु हर फिल्म में एक अलग भूमिका में उतर कर उन्होंने खुद को दर्शक के मन में गहरे उतार लिया है। वे बहुत कुछ उस बैट्समैन की तरह है जो बची हुई अंतिम गेंद में छक्का जड़ देता है और दर्शक के दिलो दिमाग पर छा जाता है।
कभी स्टूडियो के गेट पर ही रोक दिए गए पंकज त्रिपाठी की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब सिर्फ उन्हें ध्यान में रखकर भूमिकाएँ लिखी जा रही है। दो माह पूर्व समाप्त हुए ‘सेक्रेड गेम’ में उनका रोल बहुत छोटा था जिसे दूसरे सीजन में केंद्र में रखकर पटकथा लिखी जा रही है। हाल ही में अमेजन प्राइम पर प्रसारित ‘मिर्ज़ापुर’ में वे केंद्रीय भूमिका में थे।
टीवी इंडस्ट्री के आंकड़े बताते है कि ‘मिर्ज़ापुर’ के साथ ही नेटफ्लिक्स पर आरम्भ हुआ ‘नार्को’ का तीसरा सीजन ‘मिर्ज़ापुर’ की वजह से फीका हो गया है।
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)