रविन्द्र आरोही/
रवींद्र आरोही दृश्य के धनी रचनाकार हैं।.मसलन ये सिर्फ आरोही ही देख और लिख सकते हैं कि पेड़ के किनारे तालाब खड़ा था. वर्णन की उनकी शैली नवोन्मेषी है. द्रष्टव्य और शब्द के बीच जो अव्याख्येय दूरी रहा करती है, कुछ लोग अपनी रचनाओं के माध्यम से यह दूरी पाटने की सतत कोशिश करते हैं. आरोही उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है.
किताबें हमें गढ़ती हैं और इस कदर गढ़ती हैं कि हम अपने भीतर एक लोक गढ़ लेते हैं. और हमारे भीतर का यह लोक इतना सच होने लगता है कि बाहर की दुनिया एक नींद से ज्यादा और कुछ नहीं रह जाती. हम धीरे-धीरे अदृश्य से होने लगते हैं बाहर की दुनिया से प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र सिरस की तरह.
जहां कोर्ट में सिरस को लेकर नैतिकता-अनैतिकता की बहस चल रही है, वहीं वह कोर्ट में सो रहा है या अपनी कविता का अनुवाद कर रहा है. वह जहां पहुंचा हुआ है वहां तक ओछी और छोटी बातें पहुंचती ही नहीं हैं.
मुझे माफ करो बाबा… सिरस के ये शब्द पूरी दुनिया को धत्ता बताते हैं.
कई बार हम समाज में देखते हैं कि कोई बड़ा उत्सव या महोत्सव हो तो कुछ सड़कछाप लड़कों को वोलेंटियर बना दिया जाता है. वे अचानक से सिस्टम के रखवाले हो जाते हैं, व्याख्याता हो जाते हैं. समाज के तमाम समझदार, अनुभवी, बूज़ुर्ग लोगों को अपनी तरह से लाइन में लगाने लगते हैं, ठेलने लगते हैं, धकियाने लगते हैं. और यह कितना कारुणिक है कि इस ठेलने, धकियाने और गरियाने वाले लोकतंत्र के बीच एक बूढ़ा प्रोफेसर आशा करे कि उसे एक कविता की तरह समझा जाए- भावात्मक.
फिल्म में एक दृश्य है जब एक पत्रकार पूरे उत्साह के साथ सिरस से पूछता है- आपको अपना घर छोड़ते हुए कैसा लग रहा है? सिरस उसे देखता है, मुस्कुराता है और कहता है- मुझे माफ करो बाबा, जाने दो. आप उस मुस्कुराहट को बार-बार देखें, उसमें थोड़ा-थोड़ा मनोज वाजपेयी दिखेगा.
इस फिल्म का हर दृश्य एक वर्ग का चरित्र खोलता है.
मनोज वाजपेयी मेरे चहेते रहे हैं. मैंने उनकी लगभग फिल्में देखी है पर शूल, पिंजर जैसी दोचार फिल्में छोड़ दें तो याद नहीं कि वो कौन सी फिल्म है जिसमें डायरेक्टरों ने उनसे ओवर एक्टिंग न कराया हो. प्रकाश झा तो मनोज वाजपेयी से ही मनोज वाजपेयी का नकल करवाते थे… ख़ैर.
हंसल मेहता ने यहां सिर्फ मनोज वाजपेयी के सत्त को छुआ, स्टार्डम को नहीं.
राजकुमार राव इस फिल्म की ऐसी उपलब्धि हैं जिनके बारे में अलग से बातें की जानी चाहिए. एक कि यह फिल्म चरित्र प्रधान है. दो कि मनोज वाजपेयी का खुद औरा बड़ा है. और तीन कि फिल्म में उनके चरित्र का भी औरा बड़ा है और इन सब के बीच राजकुमार राव ने अपना असर छोड़ा है, ये बहुत बड़ी बात है. स्क्रीन पर जितनी देर तक राजकुमार राव रहते हैं, उतनी देर तक दर्शक की दिमाग से मनोज वाजपेयी का किरदार ऑफ रहता है.
इस फिल्म को कई बार देखने के कई कारण है.
एक डॉक्टर की मौत का डॉक्टर दिपांकर रॉय के बाद अलिगढ़ का प्रोफेसर श्रीनिवास रामचंद्र सिरस मेरे सबसे अज़ीज़ हैं. अलीगढ़ के साथ एक डॉक्टर की मौत को याद करने के कई कारण हैं. दो युग पहले, नब्बे के दसक में जब दुनिया अपनी तरह से बदल रही थी तब तपन रॉय को लगा होगा कि सिस्टम को बदला जा सकता है और उन्होंने व्यवस्था के कुचक्र में फंसे एक डॉक्टर की कहानी पर फिल्म बनाई- एक डॉक्टर की मौत. जहां अलीगढ़ का सिरस एक सिरे से मौन है वहीं एक डॉक्टर की मौत का दिपांकर रॉय हर बात पर रिएक्ट करता है. गुस्साता है, चीखता है, चिल्लाता है, कोसता है. तपन रॉय को लगा होगा कि आ रही बाढ़ को बांध पर लेटकर रोका जा सकता है पर छब्बीस साल बाद उस बाढ़ में डूब चुकी दुनिया को देखकर हंसल मेहता को ऐसा नहीं लगता. उनका नायक एक सिरे से मौन रहता है. वह इस तरह मौन है कि अपना पक्ष भी नहीं रखना चाहता. उस अलीगढ़ की चारदिवारी से अलग सिरस के भीतर अपना एक गढ़ है. और इस दुनिया बचे रहने की पहली शर्त की तरह है कि आपके भीतर एक गढ़ हो.
दोनों फिल्मों को एक साथ याद करने का दूसरा तुक है कि दोनों फिल्मों में एक-एक जर्नलिस्ट हैं. तब के इरफ़ान खान आज के राजकुमार राव हैं.
मैं दोनों की कहानी में न भी जाऊं तो याद करने का एक तीसरा भी तुक है. दोनों फिल्मों के अंत में एक अमेरिका आता है. डॉक्टर अमेरिका चला जाता है और प्रोफेसर अमेरिका जाने की सोचकर रह जाता है या कहें मर जाता है.