रजनीश जे जैन/

अगर आज गांधीजी जीवित होते तो अपना 149 वां जन्मदिवस मना रहे होते. लेकिन इस नाशवान जगत का नियम है कि मनुष्य को एक निश्चित उम्र के बाद विदा होना ही पड़ता है. लेकिन कुछ लोग होते हैं जो अपने पीछे इतनी बड़ी लकीर छोड़ जाते है कि लोगों को सदियाँ लग जाती हैं उन्हें समझने में. अफ़सोस गांधीजी को बलात् इस दुनिया से हटाया गया था. यह तथ्य आज भी दुनिया के एक बड़े वर्ग को सालता है. उनसे मतभेद होना स्वाभाविक था परन्तु उनका अंत तय करना पूरी मानव जाति के लिए शर्म का सबब रहा है.
गांधीजी के जीवन और विचारो को समेटने की कोशिश में सैंकड़ों किताबें लिखी गईं हैं. परन्तु उनकी मृत्यु के बीस बरस तक सिनेमा ने उन्हें लगभग नजर अंदाज ही किया. स्वयं गांधीजी सिनेमा के विरोधी थे और अपने जीवन में उन्होंने एकमात्र फिल्म ‘राम राज्य’ (1943) ही देखी थी.
लेकिन उनके अनुयायियों में हर विधा के लोग थे जो उन्हें इन माध्यमों से जोड़कर करोड़ो लोगो तक पहुँचाना चाहते थे. ऐसे ही एक थे ए के चट्टीएर जो मूलतः चीन के निवासी थे. घुमन्तु, पत्रकार और फिल्मकार- उन्होंने 1938 में भारत के चारों कोनो में एक लाख किलोमीटर की यात्राएं गांधीजी के फोटो और फिल्मों को एकत्रित करने के लिए की थी. इस संग्रह के आधार पर उन्होंने गांधीजी पर 81 मिनिट की डॉक्यूमेंट्री ’20 वी सदी का पैगम्बर- महात्मा गांधी’ ( Mahatma Gandhi -20 th century prophet) बनाई. महात्मा पर बनी यह पहली आधिकारिक डॉक्यूमेंट्री थी जिसे बकायदा सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र मिला था.
यद्यपि गांधीजी की गोलमेज कॉन्फ्रेंस के लिए लंदन यात्रा को बीबीसी ने संजो लिया था परन्तु यह द्रश्य कई बरस बाद भारत पहुंचे थे. चट्टीएर की बनाई डॉक्यूमेंट्री 15 एम्एम् के कैमरे से शूट की गई थी और इसका पहला प्रसारण 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में किया गया था.
प्रधानमंत्री नेहरू की और से उनकी पुत्री इंदिरा और भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके प्रदर्शन के साक्षी बने थे. 1953 में चट्टीएर इस फिल्म को अंग्रेजी में डब कर अपने साथ अमेरिका ले गए जहाँ इसकी दूसरी स्क्रीनिंग तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डी डी आइसनहोवर और उनकी पत्नी के लिए हुई.
चट्टीएर की बनाई डॉक्यूमेंट्री 15 एम्एम् के कैमरे से शूट की गई थी और इसका पहला प्रसारण 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में किया गया था
इसके बाद यह फिल्म अगले छः सालों तक लगभग गुम ही रही और 1959 में इसे फिर से तलाशा गया. 2015 में इस फिल्म को पूर्णतः डिजिटल फॉर्मेट में बदल कर संजो लिया गया है. अब यह फिल्म ‘गांधी मेमोरियल म्यूजियम’ की धरोहर है.
गांधीजी पर बनी पहली फीचर फिल्म के निर्माण की कहानी भी गांधी जी के जीवन की तरह दिलचस्प और उतार-चढ़ाव से भरी है.
सन् 1952 में हंगरी के फिल्मकार गेब्रियल पिस्कल ने प्रधानमंत्री नेहरू से गांधीजी पर फिल्म निर्माण की अनुमति हासिल कर ली. वे कुछ कर पाते इससे पहले 1954 में उनकी मृत्यु हो गई और यह प्रयास सफल नहीं हो पाया.
सन् 1960 में रिचर्ड एटेनबरो ख्यातनाम निर्देशक डेविड लीन से मिले और उन्हें अपनी स्क्रिप्ट दिखाई. डेविड लीन इस फिल्म को निर्देशित करने के लिए राजी हो गए, यद्यपि उस समय वे अपनी फिल्म ‘द ब्रिजेस ऑन रिवर क्वाई’ में व्यस्त थे. डेविड ने अभिनेता एलेक गिनेस को गांधी की भूमिका में चुन लिया परन्तु इसके बाद किन्हीं कारणों से यह प्रोजेक्ट फिर ठंडे बस्ते में चला गया और डेविड अपनी नई फिल्म ‘लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया’ में मशगूल हो गए.
एक दिन 1962 में लन्दन स्थित इंडियन हाई कमिशन में कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी मोतीलाल कोठारी ने रिचर्ड एटेनबरो से मुलाकात की और उन्हें गांधीजी पर बनने वाली फिल्म के निर्देशक की भूमिका करने के लिए मना लिया. इससे पहले कोठरी लुई फिशर की गांधीजी पर लिखी किताब के अधिकार हासिल कर चुके थे जो स्वयं लुई फिशर ने उन्हें निःशुल्क प्रदान किया था.
सन् 1963 में लार्ड माउंटबेटन की सिफारिश पर नेहरूजी की मुलाकात एटेनबरो से हुई, नेहरूजी को स्क्रिप्ट पसंद आई और उन्होंने फिल्म को प्रायोजित करना स्वीकार कर लिया
1963 में लार्ड माउंटबेटन की सिफारिश पर नेहरूजी की मुलाकात एटेनबरो से हुई, नेहरूजी को स्क्रिप्ट पसंद आई और उन्होंने फिल्म को प्रायोजित करना स्वीकार कर लिया. लेकिन अभी और अड़चनें आनी बांकी थीं.
नेहरूजी का अवसान, शास्त्रीजी का अल्प कार्यकाल, इंदिरा गांधी की समस्याएं और व्यस्तता, अंततः एटेनबरो का जूनून और अठारह बरस के इंतजार के बाद 1980 में ‘गांधी’ का फिल्मांकन आरंभ हुआ.
यहाँ तक आते-आते एटेनबरो का बतौर अभिनेता करियर बर्बाद हो चुका था. उनका घर और उनकी कार गिरवी रखे जा चुके थे. मुख्य भूमिका के लिए बेन किंग्सले को लिया गया. इस बात पर अखबारों ने बहुत हल्ला मचाया परन्तु एटेनबरो टस से मस नहीं हुए. बहुत बाद में मालुम हुआ कि किंग्सले आधे भारतीय ही थे. उनके पिता गुजराती थे और माँ अंग्रेज.
इसके बाद की कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है. ‘गाँधी’ फिल्म आज भी दुनिया भर में देखी और सराही जाती है.
यूँ तो गांधीजी पर अनेक डॉक्यूमेट्रियाँ बनती रही है परन्तु 2009 में बीबीसी द्वारा निर्मित मिशेल हुसैन की ‘गांधी’ विशेष उल्लेखनीय है. यह अलग ही तरह से इस युग पुरुष का आकलन करती है.
यह फिल्म एक तरह से गांधीजी के जीवन का यात्रा वृतांत प्रस्तुत करती है. इसकी प्रस्तुता पाकिस्तानी मूल की ब्रिटिश नागरिक उन सभी जगहों पर जाती है जहाँ जहाँ अपने जीवन काल में गांधी जी गए थे.
विडंबना देखिये! जिस ब्रिटिश साम्राज्य को गांधी ने बाहर का रास्ता दिखाया था उसी के एक नागरिक ने उन्हें परदे पर उतार कर अपनी आदरांजलि अर्पित की.
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)