रजनीश जे जैन/

हम हिन्दुस्तानियों की कुछ खूबियाँ बेमिसाल हैं। हम जितना जानना चाहते हैं उतना ही हमें दिखाया जाता है। कम को लेकर हम कोई शिकायत भी नहीं करते। दुनियाभर के प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कार तुरंत हमारा ध्यान आकर्षित कर लेते हैं। अपनी अधिकांश स्तरहीन फिल्मों के लिए हमारा स्नेह उबाल मारने लगता है। हम मन ही मन कामना करने लगते हैं कि यह ट्रॉफी तो अब हमारी होकर ही रहेगी।
कांस फिल्मोत्सव में हमारी दिलचस्पी ऐश्वर्या रॉय, सोनम कपूर के चहलकदमी करने तक ही रहती है या उनके पहने डिज़ाइनर गाउन को निहारने में! उसके बाद प्रतियोगी खंड में कौन सी फिल्म विजेता होने के लिए शॉर्टलिस्ट होगी, हमें फर्क नहीं पड़ता। यही रवैया हमारा ‘बाफ्टा’ को लेकर भी रहता है और ऑस्कर को लेकर भी। बहरहाल, इन दिनों फिल्मों से इतर ‘फ्रेंच ओपन’ और ‘क्रिकेट वर्ल्ड कप’ ने ख़बरों के स्पेस में बढ़त बनायी हुई है। दोनों ही खेल के सितारे किंवदंती रहे हैं। क्रिकेट की तरह टेनिस खिलाड़ियों ने भी इतना अकूत धन कमाया है कि वह फ़िल्मी सितारों के लिए ईर्ष्या का विषय रहा है। लोकप्रियता के लिहाज से भी दोनों खेल फिल्मों से कही आगे रहे है।
दोनों ही खेल येन केन समय समय पर फिल्म के कथानक में शामिल हुए हैं परन्तु अमेरिकन फुटबाल या बेसबाल की तरह इन पर पूर्ण फिल्म कभी नहीं बनी। भारत जैसे देश में जहाँ सम्पूर्ण आबादी ही क्रिकेटमय हो जाती हो वहाँ क्रिकेट को केंद्र में रखकर किसी फिल्म का निर्माण करना किसी फिल्मकार के लिए संभव नहीं हुआ। होने को एक काल्पनिक कहानी ‘लगान’ या किसी एक सितारे के उदय होने की कहानी ‘धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी, ‘ काई पो चे’ ‘फरारी की सवारी’ के रूप में क्रिकेट परदे पर अवतरित हो चुकी है। लेकिन दर्शक को रोमांच के गोते लगवा दे (जैसा ‘चक दे इंडिया’ ने अनुभव कराया) वैसी इकलौती फिल्म क्रिकेट पर नहीं बन पाई। ऐसा न होने की वजह क्रिकेट का तीन भागों में बंटा हुआ खेल होना है। बॉलिंग, बैटिंग और फील्डिंग में बंटा होने की वजह से दृश्य को इच्छानुसार पुनः नहीं बनाया जा सकता। किसी दृश्य को रीक्रिएट करना दर्शक की नजर से बच नहीं सकता। यह खेल फुटबॉल, बास्केट बाल या वॉलीबॉल की तरह लय में भी नहीं बहता। इसका रोमांच धीरे-धीरे आकार लेता है यही इसका ‘माइनस पॉइंट’ बनता है।
फिल्मों में क्रिकेट को भुनाने के अनगिनत प्रयास हुए हैं। परंतु यह मानकर चलना होगा कि मनोरंजन और खेल को मिला देने के परिणाम शायद ही सुखद हो पाए। बहुत से फिल्मकारों ने इसे ‘ कॉकटेल ‘ बनाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुए। मंदिरा बेदी की ‘मीराबाई नॉट आउट’ रानी मुखर्जी ‘दिल बोले हड़िप्पा’ राहुल बोस ‘चैन कुली की मेन कुली’ इमरान हाशमी ‘जन्नत’ आमिर खान ‘अव्वल नंबर’ सुनील गावस्कर के कैमियो वाली ‘मालामाल’ जैसी फिल्में बगैर कोई प्रभाव छोड़े जाती आती रही हैं। अस्सी के दशक में आस्ट्रेलियाई टीवी चैनल व्यवसायी केरी पेकर ने क्रिकेट की सफ़ेद दुनिया में रंग भरे थे। तब से शुरू हुआ यह तमाशा आज आईपीएल के रूप में फलफूल कर दरख़्त बन चुका है। आज इसमें चीयर गर्ल की शक्ल में ग्लैमर भी है, ट्वेंटी-ट्वेंटी का फटाफट रोमांच भी। कभी कलात्मक कहा जाने वाला खेल आज मसाला मूवी बनकर रह गया है। भारत जैसे देश में फिल्मों की सीधी टक्कर क्रिकेट से रही है। दर्शक भी इतना सयाना है कि ‘लाइव’ और ‘रिकार्डेड’ के अंतर को भली-भांति समझता है।शायद इसीलिए हमारी फिल्मों में क्रिकेट कहानी का हिस्सा हो सकता है, कहानी नहीं।
संभव है कि कबीर खान की अगले वर्ष प्रदर्शित होने वाली फिल्म ’83’ इस कमी को कुछ हद तक दूर करने का प्रयास करे। देश ने कपिल देव के नेतृत्व में अपराजेय समझी जाने वाली वेस्ट इंडीज को करारी शिकस्त देकर अपना पहला विश्व कप जीता था। भारत के ऐतिहासिक क्षण पर बनी यह फिल्म सिने प्रेमियों के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है।
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)