रजनीश जे जैन/

“पानी का न रंग है, न स्वाद, न सुगंध, न इसे परिभाषित किया जा सकता है। यह जीवन के लिए जरुरी नहीं , स्वयं जीवन है। यह हमें उन तृप्तियों से भर देता है जो इंद्रियों के आनंद से अधिक है”, फ्रेंच लेखक अंटोनिओ डे सेंट की पंक्तियाँ पानी के रहस्य से हमारा परिचय करा देती हैं। कहना न होगा यह रहस्य्मयी जल हमें इतनी प्रचुरता में मिला था कि हम इसकी क़द्र करना भूल गए। जो भी चीज़ मनुष्य को इफरात में मिलती है उसके प्रति वह उदासीन हो जाया करता है। पिछले 30-40 वर्षों में ही पीने के पानी का संकट विकराल रूप ले चुका है। दैनिक अखबारों के अंचल के पन्नों और शहरी खबरों में इस भयावह समानता को महसूस किया जा सकता है। इन्हीं समाचारों के मध्य कभी-कभी मानसिक दिवालियेपन की झांकी भी नजर आ जाती है जहाँ वर्षा के लिए जानवरों के विवाह कराये जाने के हास्यास्पद टोटके आजमाए जाने का ज़िक्र होता है।
मानसून की सक्रियता के बावजूद देश के कुछ क्षेत्र अभी भी अवर्षा की स्थिति से गुजर रहे है। प्रकृति के प्रति उदासीनता के परिणामो का असर नजर आने लगा है। भूजल स्तर हर गुजरते साल के साथ नीचे उतर रहा है। किसी ने कभी कहा होगा कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। वे गलत नहीं थे। हमारे ही देश के दो राज्य जिस तरह पानी के बंटवारे को लेकर एक दूसरे के खिलाफ तलवारे ताने हुए हैं उससे डरावने भविष्य की स्पष्ट तस्वीर उभर आती है। इन दिनों समाचार पत्रों में एक विशेष तरह की तस्वीर लगातार प्रकाशित हो रही है। एक नन्हे पौधे के इर्द-गिर्द खड़े 25-50 लोग वृक्षारोपण की रस्म अदायगी करते, कैमरे की तरफ झांकते लोग अमूमन रोजाना ही नजर आ रहे हैं। इनमे से कितने पर्यावरण को लेकर गंभीर है उस फोटो को देखकर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
आज जरुरत है प्रकृति के प्रति जुनूनी समर्पण की। अच्छी बारिश के बाद इनमें से अधिकाँश लोगों को याद नहीं रहता कि उस पौधे का क्या हाल है। त्योहार की तरह पेड़ लगाने वालों को समझना होगा कि यह सिर्फ साल में एक बार किया जाने वाला काम नहीं है। पर्यावरण के प्रति जागरूकता हमारी जीवन शैली होना चाहिए तब जाकर हम आगामी पीढ़ी के लिए बेहतर परिस्तिथियाँ निर्मित कर पायेंगे। जल संकट और कुछ नहीं बल्कि आधुनिक जीवन शैली और रहन सहन के बदलते स्वरुप का नतीजा भर है। समय रहते हमें समझना होगा कि क्या वजह है कि मात्र सात इंच बारिश के बावजूद इज़राइल जैसा नन्हा सा देश दुनिया को कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ पानी के सदुपयोग पर व्याख्यान देने की स्थिति में आ गया है। हमारी पीढ़ी को यह कटु सत्य स्वीकार लेना चाहिए कि उनके समय में पानी एक प्रोडक्ट की तरह बिकना आरंभ हो गया है। तरक्की का यह सोपान मानव जाति को किस स्थिति से रूबरू कराएगा, सिर्फ कल्पना की जा सकती है।
पानी की समस्या पर पर्यावरण वादियों और चिंतको के अलावा फिल्मकारों ने भी अवर्षा को केंद्र में रखकर पानी के महत्व को आवाज देने का प्रयास किया है। ख्यातनाम फिल्मकार ख्वाजा एहमद अब्बास ने पचास वर्ष पूर्व महसूस कर लिया था कि पानी का दुरूपयोग और अभाव हमारे जीवन को गहरे तक प्रभावित करने वाला है। इसी संकट को केंद्र में रखकर उन्होंने फिल्म ‘दो बूँद पानी’ (1971) को निर्मित और निर्देशित किया। कथानक और उसका संदेश उस दौर से ज़्यादा आज प्रासंगिक है। स्वर्गीय जयदेव के मधुर संगीत परवीन सुल्ताना एवं मीनू पुरुषोत्तम की आवाज में कैफ़ी आजमी रचित गीत ‘पीतल की मोरी गागरी’ की मार्मिकता आज भी हवाओ में घुली महसूस होती है।
आर के नारायण के उपन्यास पर आधारित ‘गाइड ‘(1965) में अवर्षा कथानक के केंद्र में है। एक चोर परिस्थिति वश साधू बन जाता है परंतु गाँव वालों की अपने प्रति अगाध श्रद्धा के चलते वर्षा के लिए बारह दिन के उपवास की तपस्या कर बैठता है। इधर भूख से उसकी मृत्यु होती है और उधर गाँव में झमाझम बारिश आरम्भ हो जाती है। यह फिल्म देव आनंद को बतौर अभिनेता, विजय आनंद को बतौर निर्देशक और एस डी बर्मन को बतौर संगीतकार तब तक अमर रखेगी जब तक इस धरा पर सिनेमा मौजूद रहेगा !
अमोल पालेकर निर्देशित अपने आप में अनूठी फिल्म ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाए’ (1990 ) पानी को जीवन के कई प्रतीकों में बांधती है। जीवन में उत्साह और आत्मविश्वास का ख़त्म हो जाना एक तरह से प्रकृति का पानी विहीन हो जाना है। कविताई शैली में बोले गए संवादों की वजह से नाना पाटेकर और अनिता कँवर की केंद्रीय भूमिका वाली इस फिल्म में भी भारी सूखे के बाद बारिश का आना जीवन में आशा के संचार का प्रतीक बनकर उभरा है।
कल्पना कीजिये कि फिल्म ‘लगान ‘(2001) से भारी सूखा झेल रहे गांववालों की त्रासदी को निकाल दिया जाए तो फिल्म में क्या बचेगा ? ‘लगान’ अपनी मंजिल से ही भटक जायेगी। फिल्म की शुरुआत में घुमड़ते बादलों का आकाश में जुटना एक उम्मीद जगाता है और गीत ख़त्म होते होते उनका गायब हो जाना स्पष्ट कर देता है कि इस बार की अवर्षा उनकी जिंदगी के मायने बदल देने वाली है।
पानी पर लिखे कथानकों का अंत भले ही अच्छा रहा हो परंतु वास्तविक जीवन में परिस्तिथियाँ इस तरह के मौके कम ही देती हैं। पर्यावरण और प्रकृति के प्रति नज़रअंदाज़ी की कीमत वर्तमान और आगामी दोनों ही पीढ़ियों को मंहगी पड़ने वाली है। यह बात जितनी जल्द समझ में आ जाये उतना बेहतर होगा।
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)