रजनीश जे जैन/

सरकारी विज्ञापनों में किसान जितना खुश और संतुष्ट नजर आता है दरअसल उतना खुश और संपन्न अपने जीवन में वह कभी-कभार ही रह पाता है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर आधारित होने के बाद भी किसान और कृषि आम विमर्श का मुद्दा कभी नहीं बन पाते। अक्सर चुनावों के समय उनका जिक्र शिद्दत के साथ किया जाता है। उनकी बेरंग जिंदगी में इंद्रधनुषी रंग भर देने की बात हरेक मंच से गूंजने लगती है लेकिन ये सपने-वादे हकीकत में कम ही उतरते है। जिस तरह आम जीवन की चर्चा से किसान और खेती को नजरअंदाज किया गया है वैसा ही कुछ सुलूक फिल्म निर्माताओं ने इस पेशे और पेशकारों के साथ किया है। सिनेमाई इतिहास में चुनिंदा फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो देश की आबादी का पेट भरने वाले इस वर्ग को रजत पटल पर न के बराबर जगह मिली है। किसी कहानी का नायक होना उसके लिए यहाँ भी संघर्षपूर्ण ही रहा है।
हिंदी सिनेमा का अनमोल रत्न कही जाने वाली ‘दो बीघा जमीन (1953)’, ‘मदर इंडिया (1957)’ सही मायने में भारतीय किसान की वास्तविक दशा और दर्द का चित्रण करती है। ये फिल्में बताती है कि न सिर्फ मानसून वरन साहूकार का चंगुल भी उनकी नियति तय करता है!
आज सत्तर बरस में हालात कुछ तो बदले हैं लेकिन आर्थिक समीकरण जस के तस हैं। बहुत से लोग आज भी इस पेशे को ‘उपकार (1967)’ के नायक भारत और ‘लगान ( 2001)’ के भुवन की तरह छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन बदले में उन्हें क्या मिलता है यह कोई नहीं जानना चाहता! यही वजह है कि जिस वर्ग को अपनी उत्पादकता और जिजीविषा के लिए ख़बरों में होना चाहिए वह सालना हजारों की संख्या में ‘आत्महत्या’ के लिए अखबार की खबर में नजर आता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद फिल्मकारों ने महसूस किया कि कठोर संघर्ष के बाद दर्शकों को आदर्श और कल्पना की खुराक दी जाना चाहिए लिहाजा फिल्में इन्हीं दो भावों से सरोबार होने लगी। कालांतर में आदर्श भी पीछे छूट गया और सिर्फ ‘रोमांटिसिज़्म’ ही फिल्मों के केंद्र में रह गया। ऐसा सिर्फ हिंदी सिनेमा में नहीं हुआ वरन हिंदी के समानांतर पनप रहे तमिल तेलुगु सिनेमा में भी यही परंपरा दोहराई जाने लगी।
दक्षिण में देवताओं की तरह पूजे जाने वाले एम जी रामचंद्रन की ‘विवासायी (1965)’ इकलौती फिल्म है जिसने किसान को उसके पूरे यथार्थ के साथ दर्शाया था। लगभग इसी समय शिवाजी गणेशन की तमिल फिल्म ‘ अर्रिवाली (1963 )’ इसी मुद्दे को उठा चुकी थी। क्षेत्रीय सिनेमा में आज भी किसान कभी-कभी केंद्रीय भूमिका में नजर आ जाता है लेकिन उसकी समस्या और तकलीफों को स्क्रिप्ट में जगह नहीं दी जाती।
कहने को संयुक्त राष्ट्र संघ की दीवार पर तीसरी दुनिया के किसानो के लिए प्रेरक सन्देश ‘वे अपनी तलवारों को ढाल लेंगे हलों की फाल में और भाले बन जाएंगे फसल काटने की दरातियाँ, कोई देश दूसरे के खिलाफ हथियार नहीं उठाएगा और नहीं सीखेंगे वे युद्ध कलाए’ लिखा हुआ है लेकिन आमजन की नजरों में जब तक किसान की महत्ता समझ नहीं आएगी तब तक वह उक्ति व्यर्थ ही है।
ठीक वैसे ही जैसे भारत में कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए ‘नेशनल फिल्म अवार्ड फॉर बेस्ट एग्रीकल्चर फिल्म’ हर वर्ष दिया जाता है ! वर्ष 1984 में स्थापित यह अवॉर्ड देश की किसी भी भाषा में बनी सर्वश्रेष्ठ कृषि फिल्म को प्रति वर्ष दिया जा रहा है ! विडंबना है कि यह अकेला ऐसा राष्ट्रीय पुरूस्कार है जिसके न जानने का मलाल भी किसी को नहीं है! पॉइंट वही है, किसान की पीड़ा और प्रश्नों की सामूहिक नजरअंदाजी ! जब तक एक बड़ा वर्ग और निजाम उसे अपने रोजमर्रा जीवन से नहीं जोड़ेगा तब तक उसके हर सवाल अनुत्तरित रहेंगे और उनके लिए वह सड़कों पर आता रहेगा।
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(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं।)