रजनीश जे जैन/

1970 के दशक में अमिताभ बच्चन के एंग्री यंगमेन ने सिनेमाई क्षितिज पर इस तरह से जगह घेर ली थी कि संभावना से भरे कई अभिनेता समय से पहले ख़ारिज हो रहे थे या उस दौर की भूमिकाओ के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। लेकिन मारधाड़ और हिंसा से भरे इसी दौर में एक नवयुवक ने स्टेज थिएटर से अपनी अभिनय यात्रा आरम्भ की। पतली लकीर के मानिंद मूछों और सामान्य शकल सूरत वाले इस युवक को देखकर कोई भी कह सकता था कि यह रास्ता भटककर फिल्म के सेट पर आ गया है। यह युवक अमोल पालेकर था जिन्होंने अपनी शुरुआत जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से एक चित्रकार के रूप की थी और बाद में खुद को थिएटर एक्टर प्रोडूसर के सांचे में ढाला। आरंभिक दो मराठी फिल्मे ‘बाजिराओ चा बेटा (1969)’ व ‘शांतता कोर्ट चालु आहे (1971)’ ने न केवल उन्हें स्टेज से उठाकर स्क्रीन पर जगह दी वरन मराठी सिनेमा को भी व्यापक कैनवास प्रदान किया।
मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे अमोल पालेकर ‘शिवाजी पार्क’ एरिया में बड़े हुए है जहाँ महान क्रिकेटर सुनील गावस्कर उनके बाल सखा रहे है। अमोल के करियर ने बासु चटर्जी की 1974 में प्रदर्शित ‘रजनीगंधा’ से उड़ान आरम्भ की। हमेशा मुस्कुराने वाले अमोल के लिए उस दौर में ‘हैप्पी यंगमैन’ का शब्द गढ़ा जाना चाहिए था परंतु उनकी मध्यम बजट की फिल्मे और वास्तविक जिंदगी से जुड़े किरदारों की वजह से उस समय के समीक्षकों और फिल्मकारों का ध्यान उनकी इस खूबी की तरफ नहीं गया था।
बकौल स्वयं उनके, वे बैंक का सुरक्षित जॉब छोड़कर कुछ रचनात्मक करने के लिए आये थे। बीते पचास वर्षों से वे यही कर रहे है। अपने अभिनय से उन्होंने कई फिल्मों को कालजयी और दर्शनीय बना दिया है। 1977 में प्रदर्शित ‘घरोंदा’ और इसके गीतों को दर्शक आज तक नहीं भूले है। मुंबई में घर की तलाश में भटकते युवा जोड़े और उनके रिश्तों को दर्शाती इस फिल्म को अमोल – जरीना वहाब के अभिनय के अलावा निर्माता भीमसेन खुराना के साहस के लिए भी याद किया जाता है। ‘घरोंदा’ बन जाने के दो साल तक प्रदर्शित नहीं हो पाई थी। बिन बिकी फिल्म गले में बंधे पत्थर से कम नहीं होती। इस धीरज का फल भीमसेन के साथ अमोल के लिए भी अंततः सुखद रहा।
अमोल की अभिनय यात्रा में श्याम बेनेगल की ‘भूमिका’, कुमार शानी की ‘तरंग’ और विधु विनोद चोपड़ा की ‘ ‘खामोश’ उल्लेखनीय पड़ाव की तरह आई। ‘चितचोर’, ‘छोटी सी बात’, ‘गोलमाल’, ‘मेरी बीबी की शादी’ , ‘दामाद’ उनकी यादगार फिल्मे रही है। लेकिन वे सिर्फ अभिनय से बंधे नहीं रहे। उन्होंने स्टेज थिएटर, पेंटिंग, निर्देशन और प्रोडक्शन में उसी तल्लीनता से काम किया।
अमोल पालेकर न केवल विविधता भरी भूमिकाओं के लिए अब तक सराहे जाते है वरन अपने साहसिक विषयों के चुनाव लिए भी स्मरण किये जाते है
अमोल पालेकर न केवल विविधता भरी भूमिकाओं के लिए अब तक सराहे जाते है वरन अपने साहसिक विषयों के चुनाव लिए भी स्मरण किये जाते है। दूरदर्शन युग में किशोर होते बच्चों में विकसित होती यौन इच्छाओ पर सार्थक धारावाहिक ‘कच्ची धुप’ 1987 व भारत की इकलौती कविताई शैली में संवाद करती फिल्म ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाए (1990)’ उनके रचनात्मक व्यक्तित्व का एक पहलु भर है। फिल्मस डिवीज़न के सहयोग से बनी इस फिल्म में नाना पाटेकर और अनीता कँवर की केंद्रीय भूमिका थी। सौभाग्य से पचमढ़ी में फिल्माई गई इस फिल्म का प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस फिल्म का लुत्फ़ यूट्यूब पर उठाया जा सकता है। गुजराती लोक कथा पर आधारित ‘पहेली ( 2005)’ में उन्होंने अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान को निर्देशित किया था। ‘पहेली’ इसी वर्ष ऑस्कर के विदेशी भाषा खंड में भारत की आधिकारिक इंट्री के रूप में शामिल हुई थी।
24 नवंबर को अमोल पालेकर ने अपने जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये है। जीवन के महत्वपूर्ण इस लम्हे को भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता से यादगार बना दिया। इस दिन वे 25 वर्ष बाद पुनः स्टेज पर लौटे और एकल-पात्र भूमिका वाला नाटक ‘कसूर’ मंचित किया। अस्सी मिनिट की अवधि वाले इस नाटक में उन्होंने महसूस करा दिया कि कला और जीवटता का उम्र से कोई संबंध नहीं है। शीघ्र ही इस नाटक को भारत के 25 शहरों में मंचित किया जाना है। अन्य फ़िल्मी सितारों से जुदा अमोल बगैर शोर शराबे के अभिनय निर्देशन के सफर का तन्मयता से आनंद ले रहे।
***
(रजनीश जे जैन की शिक्षा दीक्षा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से हुई है. आजकल वे मध्य प्रदेश के शुजालपुर में रहते हैं और पत्र -पत्रिकाओं में विभिन्न मुद्दों पर अपनी महत्वपूर्ण और शोधपरक राय रखते रहते हैं.)