बाबूलाल दहिया/
(बाबूलाल दहिया बघेली भाषा के कवि हैं. साथ ही आप सर्जना सामजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक मंच, पिथौराबाद के अध्यक्ष भी हैं. बघेली कवियों पर आपका काम शानदार है. इस कड़ी में यह इनका दूसरा लेख है )
बैजनाथ पाण्डेय उर्फ़ बैजू
बैजनाथ पाण्डेय उर्फ़ बैजू का जन्म सन 1910 में रीवा जिले के रायपुर कर्चुलियान के पास सतगढ़ नामक गाँव में हुआ था. वे पेशे से शिक्षक थे और अपनी नौकरी के दौरान कुछ समय तक सतना में भी रहे हैं.

20 फरवरी 1988 को जब लोकभाषा विकास परिषद तिवनी ने बैजू सम्मान की घोषणा की और प्रथम सम्मान के लिए मुझे ही चुना गया तब वे जीवित थे. मुझे फ़ख्र है कि वह सम्मान मुझे उन्हीं के हाथों से मिला था.
बैजू जी को लोक जीवन का बड़ा व्यापक अनुभव था. उनका 40 के दशक में, बैजू की सूक्तियां नामक एक बघेली काव्य संकलन भी छपा था जिसे जन समुदाय ने हाथों-हाथ लिया और आज भी उनकी वे सूक्तियां गाँव की चौपालों में कभी-कभार सयानो के मुख से मुखर हो उठती हैं. उन सूक्तियों में प्रायः तब और अब का तुलनात्मक वर्णन है कि तब के किसान ऐसे थे अब के ऐसे हैं. तब के मजदूर ऐसे पर अब के ऐसे. तब के पंडित ऐसे थे पर अब के ऐसे हैं आदि. बैजू जी के अनुसार वर्तमान से अतीत ही अच्छा था.
कुछ उन्होंने वर्णात्मक शैली में ग्रामीण जीवन और किसानों की दशा पर कविताएं भी लिखी हैं. यथा
चारि महीना बरदा मारेंन जोति जोति के डाड़ी ।
सोचेंन आसउ कोदउ बोउब होई चार छ खाड़ी।।
टोरबा मिला जोतइया एकठे ढूढेंन नगरा चउही।
बोइ बराह सियारी रीतेंन मूड़े परी निरउनी।।
बिकनेन भाजेंन थोर बहुत कुछ बाच रहा जो गल्ला।
चुकइ लींहिंन सब जेठ उतरतय मारि मारि मसकल्ला।।
निजी खरिच अउ बनी मंजूरी कस के भला चलाई।
लिहे पिछउरी बेउहर के घर काढ़ा काढन धाई ।।
बेउहर कहय परी है तोहरे कइउ साल कै बाक़ी।
करा हिसाब उहउ लिखबाबा अब ना चली चालाकी।।
खेती छाढि न उद्दिम दूसर एकर अइसन लेखा ।
माल माल सब बेउहर लइगा मोर दइउ तू देखा ।।
बैजू जी ने अपनी कविताओं में लोक जीवन का बड़ा सुंदर चित्र खींचा है. प्रथम बारिश में एक गृहणी की चिन्ता का बखूबी चित्रण इस कविता में देखें.
देखि दइउ मा उची बदरिया तब मालकिन घबरानी।
दिखे परोसिन ढंग मारग सब बरखन चाहत पानी।।
बूसा परा बसउला बाहेर छाय न गा उपड़उरा ।
ऊपरी कंडा भीज जई ता घर घर मगिहै कउरा।।
कहते हैं बैजू जी के गाँव में एक बार झगड़ा हुआ तो रंजिशन बैजू जी भी उस केस के अभियुक्त बना दिए गए. और बार-बार अदालत का चक्कर लगाने लगे.
एक दिन किसी ने उन्हें वहां बैठे देखा तो पूछ लिया कि कविवर आप यहाँ कैसे.
बैजू जी ने कविताई में ही बिना लाग लपेट के जवाब दिया की,
लाठी चली मरे जगदीश।
बैजू बाग़य काढ़े खीस।।
संयोग से जज महोदय उनकी चर्चा सुन रहे थे. उन्होंने उस केस पर तुरन्त संज्ञान लेकर बैजू जी को मुकदमे से अलग कर दिया.
एक तुकबंदी उनकी बरात पर बहुत प्रसिद्ध है कि,
दुइ दिन हीठय एक दिन खाय।
मूरुख होय बरातय जाय।।
इस तरह बैजू जी की अनेक फुटकर रचनाएं भी जन मानस में बसी हुई हैं जो धीरे-धीरे कहावतों का स्थान ले चुकी हैं.